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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः जातिका आहार्य विपर्यय कहा है। श्रुतज्ञानमें आहार्य विपर्यय के समान सम्भवनेवाले आहार्य संशय और आहार्य अनध्यवसायको भी दृष्टान्तपूर्वक घटाया गया है । चार्वाक, शून्यवादी, बौद्ध, आदि दार्शनिकों के यहां जो विपरीत अभिनिवेश से अनेक ज्ञान हो रहे हैं, वे आहार्य विपर्यय हैं । पश्चात् मतिज्ञानके भेदों में सम्भव रहे विपर्ययको कहकर स्वार्थानुमानको आमास करनेवाले हेत्वाभासोंका निरूपण किया है। तीन प्रकारके हेत्वाभास माने गये हैं । अन्य हेत्वाभासोंका इन्हींमें अन्तर्भाव हो जाता है। यहां मध्यमें बौद्ध, नैयायिक, कपिल, आदिके सिद्धान्तोंको मिथ्या बताकर उनके साधक हेतुओंको वामास कर दिया है । और भी कई तत्वोंकी वर्णना की है । सादि अनन्त केवलज्ञानका अपूर्वार्थपना साधा गया है । यद्यपि केवलज्ञानीको एक ही समय में सभी पदार्थ भास जाते हैं । फिर भी पूर्वापर-कालसम्बन्धी विशिष्टताले वह ज्ञान अपूर्वार्थमाही है । कल के बासे आटेकी आज बनी हुई रोटीको आज खानेपर और कळके ताजे आटेकी कल बनी हुई रोटीको आज बासी खाने पर स्वाद न्यारा न्यारा है | धनी होकर हुये निर्धन और निर्धन होकर पीछे धनी हुये पुरुषोंके परिणाम विभिन्न हैं । अकिंचित्कर कोई पृथक् हेत्वाभास नहीं है । जैनों के यहां प्रमाणसंप्लक इष्ट है । इसके पश्चात् नियोग, भावना, आदिको वाक्यका अर्थ माननेवाले मीमांसक आदिका विचार चढाया है । नियोग के प्रभाकारोंने ग्यारह भेद किये हैं। प्रमाण आदिक आठ विकल्प उठाकर उनका खण्डन किया गया है । वेदान्तकी रीति से नियोगका खण्डन कराकर पुनः वेदान्तमतका भी निराकरण करदिया है। भाट्टों की मानी हुयीं दोनों भावनाओंका निराकरण किया गया है । शद्वभावना, अर्थभावना घटित नहीं होती हैं । शुद्ध धात्वर्थ भी वाक्यका अर्थ नहीं बन पाता है । तथा ब्रह्माद्वैत वादियोंकी मानी हुई विधि भी वाक्यका अर्थ नहीं है। इन सबका विस्तार के साथ विचार किया गया है । प्रवर्तक या अप्रवर्तक या सफल, निष्फल, नियोग के अनुसार विधिवाद में भी सभी दोष गिरादिये गये हैं। कुछ देरतक नियोगवादीका पक्ष लेकर आचार्य महाराजने विधिवादका विद्वत्तापूर्वक अच्छा उपहास किया है, जिसका कि अध्ययन करनेपर ही विशेष आनन्द प्राप्त होता है । . नियोगके ग्यारहों मेदोंका खण्डन कर विधि, निषेध, आत्मक स्याद्वाद सिद्धान्तको साधा है । विधि में भी प्रमाणपन आदिके विकल्प लगाकर अद्वैतवादका निराकरण किया है । यंत्रारूढ पुरुष आदि मैं वाक्यके अर्थ नहीं हैं। बौद्धोंका अन्यापोह तो कथमपि वाक्यका अर्थ नहीं घटित होता है । विवक्षाका के साथ अव्यभिचारी कार्यकारणभाव सम्बन्ध नहीं है । अतः नियोग, भावना, वर्थ, विधि, आदिको यदि वाक्यका अर्थ माना जायगा तो तज्जन्यज्ञान कुश्रुतज्ञान समझा जायगा । 1 ज्ञानों में केवल देशावधि ही कदाचिद् मिध्यात्वका उदय हो जानेसे विपर्यय रूप हो जाती है । परमावधि और सर्वावधि विपर्यय नहीं हैं । मन:पर्ययज्ञान भी विपरीत नहीं है । यद्यपि प्रमाण ज्ञानों के प्रतिपादक सूत्रोंसे ही परिशेष न्यायसे मिथ्याज्ञानोंकी सम्वित्ति हो सकती है । फिर भी वादी कर्तव्य स्वपक्षसाधन, परपक्षदूषण दोनों हैं । संबर और निर्जरासे मोक्ष होती है। 27 २०९
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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