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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
वाला है, उस कार्य के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखनेवाला धर्म वर्तमानकाल में नहीं है । और यदि भविष्य में होनेवाले यज्ञकी वर्तमान में सम्भावना मानी जावेगी तो वाक्यका अर्थ नियोग नहीं हुआ । क्योंकि यह नियोग तो कर्तव्य कार्यों को भविष्य में बनानेके लिये हुआ करता है । जो किया जाकर बन चुका है, उसका पुनः बनाना नहीं हो सकता है। जैसे कि अनादिकालके बने हुये नित्यद्रव्य आत्मा, आकाश आदिक नहीं बनाये जाते हैं । द्वितीय पक्षके प्रहण करनेपर भी वह नियोग स्वर्ग आदि फलस्वरूप नहीं घटित हो सकता है । क्योंकि फळ तो स्वयं अन्तिम परिणाम है, फलका पुनः फल नहीं होता है । किन्तु नियोग तो फलकरके सहित है । यदि अन्य फलोंकी कल्पना की जायगी तो अनवस्था हो जायगी । " भावित्वेन " पाठ माना जाय तो फळ भविष्य में होनेवाला है, अतः वर्तमान कालका नियोग नहीं हो सकता है, यो अर्थ लगा दिया जाय । दूसरी बात यह मी है कि उस वाक्य उच्चारण के समय उस स्वर्ग फल आदिका सन्निधान नहीं है। अतः उस अविद्यमान फलको यदि उस वाक्यका फक मानोगे तो निरालम्बन शब्द के पचपरिग्रहका आश्रय कर केनेसे बौद्ध मतका प्रसंग होगा । प्रभाकरके मतकी सिद्धि कैसे हो सकेगी ? अर्थात् - शब्दका अर्थ वस्तुभूत कुछ नहीं है । अविद्यमान अर्थोको शब्द कहा करते हैं, इस प्रकार बौद्धजनोंने शब्दका आलम्बन कोई वाच्यार्थ माना नहीं है। अविद्यमानको शब्दका वाष्यार्थ मानना प्रभाकरोंको शोभा नहीं देता है । प्रभाकर अगामको प्रमाण मानते हैं। तृतीय पक्षके अनुसार नियोगको सभी स्वभासे रहित माना जायगा तो भी यही दोष कागू होगा । अर्थात् स्वभावोंसे रहित नियोग खरविषाणके समान असत् है । बौद्धोंके यहां असत् अन्यापोह शब्दोंका वाथ्य माना गया है। मीमांसकों के यहां नहीं । इस प्रकार आठों पक्षोंमें नियोगकी व्यवस्था नहीं बन सकी ।
किं च, सन् वा नियोगः स्यादसन् वा ? प्रथमपक्षे विधिवाद एव द्वितीये निरालंबनवाद इति न नियोगो वाक्यार्थः संभवति, परस्य विचारासंभवात् ।
नियोगका खण्डन करने के लिये विचारका दूसरा प्रकार यों भी है कि प्रभाकर मीमांसक उस नियोगको सत्रूप पदार्थ मानेंगे ! अथवा असत् पदार्थ इष्ट करेंगे ! पहिला पक्ष लेनेपर ब्रह्म अद्वैतवादियोंका विभिबाद ही स्वीकार कर लिया । क्योंकि सत्, ब्रह्म, प्रतिभास, विधि, इनका एक ही अर्थ माना गया है । यदि द्वितीय पक्ष लेनेपर नियोग असत् पदार्थ माना जायगा, तत्र तो प्रभाकरोंको बौद्धों के निरालम्बनवादका आश्रय करना प्राप्त होता है । अर्थात् असत् नियोग कभी वाक्यका अर्थ नहीं हो सकता है । इस प्रकार विधिलिङम्त वाक्योंका अर्थ नियोग करना नहीं सम्भवता है । पूर्वोक्त अनेक दोष आते हैं । जो वाक्यका अर्थ नियोग कर रहा है, उसको आहार्य कुश्रुतज्ञान है ।
तथा भावना वाक्यार्थ इत्येकांतोपि विपर्ययस्तथा व्यवस्थापयितुमशक्तेः । भावना हि द्विविधा शुद्धभावना अर्थभावना चेति “ शद्वात्मभावनामाहुरन्यामेव लिङादयः ।