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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ....... . ... .... ....... व्यापार स्वरूप नियोग है, तब तो हम मात्र कहते हैं कि इस प्रभाकरको कुमारिळभट्टके मतका अनुसरण करना कथमपि निवारा नहीं जा सकता है। हम भट्टोंके यहां शब्दव्यापारको शब्दोंकी भावनास्वरूप माना गया है । शब्द भावक हैं। अतः प्रमाकरका भट्टके मतमें प्रवेश करना अनिवार्य दुखा। पुरुषव्यापारो नियोग इति चेत् स एव दोषः तस्यापि भावनारूपत्वात्, शब्दात्मव्यापाररूपेण भावनाया दैविध्याभिधानात् । ___ यदि प्रभाकर छठवें पक्षके अनुसार आत्माके व्यापारको नियोग मानेंगे तब भी वही दोष . होगा। यानी तुम प्रमाकरोंको भट्ट मतका अनुसरण करना पडेगा। क्योंकि पुरुषका व्यापार मी भावनास्वरूप है। भाट्टलोगोने शब्द व्यापार और आत्मन्यापार स्वरूपकरके भावनाका दो प्रकारसे कथन किया है। तदुभयरूपो नियोग इत्यनेनैव व्याख्यातं । सातवें पक्षके अनुसार प्रभाकर यदि शब्द और पुरुष मिले हुये दोनोंका व्यापार स्वरूप नियोगको मानेंगे तो वह उनका वक्तव्य भी इस उक्त कथनकरके व्याख्यान कर दिया गया है। अर्थात्-क्रमसे अथवा युगपत् दोनोंका व्यापर माना जायगा ! बताओ। क्रमसे माननेपर वही मट्ट मतका अनुसरण करना दोष आता है। और युगपत् दोनोंका एक स्वभावपना तो एक वस्तुमें विरुद्ध है । अतः वह अलीक हो जायगा । तदनुभयव्यापाररूपत्वे तन्नियोगस्य विषयस्वभावता, फलस्वभावता, नि:स्वभावता, वा स्यात् ? प्रथमपक्षे यागादिविषयस्याग्निष्टोमादिवाक्यका विरहात् तद्रूपस्य नियोगस्यासंभव एव । संभवे वा न वाक्यार्थी नियोगस्तस्य निष्पादनार्थत्वात् निष्पन्नस्य निष्पादनायोगात् पुरुषादिवत् । द्वितीये पक्षेपि नासौ नियोगः फलस्य भावत्वेन नियो. गत्वाघटनात् तदा तस्यासंनिधानाच्च । तस्य वाक्यार्थत्वे निरालंबनशब्दवादाश्रयणा. स्कृतः प्रभाकरमतसिद्धिः १ निःस्वभावत्वे नियोगस्यायमेव दोषः। अष्टमपक्षके अनुसार प्रभाकर उस नियोगको यदि शब्दव्यापार पुरुषन्यापार दोनोंसे रहित स्वरूप मानेंगे तब तो पर्युदास पक्ष ग्रहण करनेपर हम माट्ट पूछेगे कि वह नियोग दोनों व्यापारोंसे मिन होता हुआ, क्या यज्ञ आदि कर्मरूप विषयस्वभाव है ! या स्वर्ग आदि फलस्वभाव है ! अथवा प्रसज्य पक्षको अंगीकार करनेपर वह नियोग समी स्वभावोंसे रहित है ! वताओ । पहिला पक्ष लेनेपर तो अग्निष्टोम करके याग करना चाहिये, इस वाक्य उच्चारणके समयमें याग आदि विषयोंका अभाव है । अतः यज्ञस्वरूप नियोगकी भी सम्भावना नहीं है । जो कार्य भविष्यमें होने
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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