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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः २८९ किन्तु गौणरूपसे नय वाचक शब्दको भी नय कह देते हैं । तथा गौण गौण रूपसे वाथ्य अर्थको भी नय कह देते हैं । जगत् में ज्ञान, शब्द और अर्थ तीन ही पदार्थ गणनीय हैं । " बुद्धिशब्दार्थ संज्ञास्तास्तिस्रो बुध्धादिवाचिकाः " ऐसा श्री समन्तभद्र स्वामीने कहा है । ज्ञाननय प्रमाताको स्वयं अपने लिये अर्थका प्रकाश कराते हैं। शब्दनय दूसरोंके प्रति अर्थका प्रकाश कराते हैं । अर्थमय तो स्वयं प्रकाशस्वरूप हैं । इसी प्रकार यह भी समझ लेना चाहिये कि कोई भी सूत्र या श्लोक अथवा लक्षण ये सब ज्ञान या शब्दस्वरूप हैं । गोम्मटसार, अष्टसहस्त्री, सर्वार्थसिद्धि इत्यादि ग्रन्थ सब ज्ञानरूप या शब्दस्वरूप है । लिपि अक्षरों या लिखित पत्रोंको ग्रन्थ कहना तो मात्र उपचरितोपचार है । उन ज्ञान या शब्दोंके विषय या वाध्य हो रहे प्रमेय अर्थ हैं । किं पुनरमीषां नयानामेकस्मिन्नर्थे प्रवृत्तिराहोस्वित्प्रतिविशेषोस्तीत्याह । किसी जिज्ञासुका प्रश्न है कि इन सभी नयोंकी फिर क्या एक ही अर्थमें प्रवृत्ति हो रही है ? अथवा क्या कोई विलक्षणताका सम्पादक विशेष है । ! इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द स्वामी इसके समाधानको कहते हैं । यत्र प्रवर्तते स्वार्थे नियमादुत्तरो नयः । पूर्वपूर्वी नयस्तत्र वर्तमानो न वार्यते ॥ सहस्रेष्टशती यद्वत्तस्यां पंचशती मता । पूर्व संख्योत्तरस्यां वै संख्यायामविरोधतः ॥ ९९ ॥ ९८ ॥ जिस जिस स्वार्थको विषय करनेमें उत्तरवर्ती मय नियमसे प्रवर्त रहा है, उस स्वार्थको जानने में पूर्व पूर्ववर्ती नय प्रवृत्ति करता हुआ नहीं रोका जाता है। जैसे कि सहस्रमें आठसौ समा जाते हैं । और उस आठसौ संख्यामें पांचसौ गर्भित हो रहे माने जाते हैं । पूर्वसंख्यानियमसे उत्तरसंख्या में वर्त जाती है, कोई विरोध नहीं है । भावार्थ-व्यवहारनय द्वारा जाने गये पदार्थ में संग्रहनय और नैगम नय प्रवर्त सकते हैं । कोई विरोध नहीं है । पूर्ववर्ती नयका विषय व्यापक है और उत्तरवर्ती नयोंका विषय व्याप्य है । पूर्ववर्ती नये उत्तरवर्ती नयोंकी जननी हैं । 1 I परः परः पूर्वत्र पूर्वत्र कस्मान्नयो न प्रवर्तत इत्याह । किसीका प्रश्न है कि उत्तर उत्तरवर्ती नयें पूर्व पूर्वकी नयोंके विषयोंमें कैसे नहीं प्रवर्तती है ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा होनेपर आचार्य महाराज उत्तर कहते हैं । 37 पूर्वत्र नोत्तरा संख्या यथायातानुवर्त्यते । तथोचरनयः पूर्वनयार्थसकले सदा ॥ १०० ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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