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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
रहे पांचवें पुत्रका गौरवर्ण ( गोरा रंग ) होते हुये भी " जितने कुछ मित्रा स्त्रीके पुत्र हैं सब श्याम है " इस प्रकार दृश्यमान चार पुत्रों के अनुसार व्याप्ति बना लेना कुचिंताज्ञान है । जहाँ जहाँ अनि होती है, वहां वहां धूप होता है, यह भी अयोगोलक या अंगारमें विसम्बाद हो जानेसे व्याप्तिज्ञानका विपर्यय है ।
हेत्वाभासवलाज्ज्ञानं लिङ्गिनि ज्ञानमुच्यते । स्वार्थानुमाविपर्यासो बहुधा तद्धियां मतः ॥ २३ ॥
हेतु नहीं किन्तु हेतुसमान दीखरहे हेत्वाभासों की सामर्थ्यसे जो साध्यविषयक ज्ञान हो रहा कहा जाता है, वह बहुत प्रकारका उस अनुमानको जाननेवाले विद्वानों के यहां स्वार्थानुमानका विपर्यय माना गया है । जब कि भेदप्रभेद रूपते बहुत प्रकारके हेत्वाभास हैं, तो तज्जन्य अनुपानाभास बहुत प्रकारके होंय यह समुचित ही है। जैसे कि वक्कापन इस असद्धेतुसे श्री अर्हत देव सर्वज्ञपन के अभावको जान लेना अनुमानस्वरूप मतिज्ञानका विपर्यास है । अर्हन् ( पक्ष ) सर्व नास्ति ( साध्यदक) वत्कृत्वात् पुरुषस्त्राद्वा ( हेतु ) रध्यापुरुषवत् ( दृष्टान्त ) इत्यादिक । कः पुनरसौ हेत्वाभासो यतो जायमानं लिङ्गिनि ज्ञानं स्वार्थानुमान विपर्ययः सहजो । मतिः स्मृतिसंज्ञाचिन्तानामिव स्वविषये तिमिरादिकारणवशादुपगम्यते, इति पर्यनुयोगे समासव्यासतो हेत्वाभासमुपदर्शयति ।
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यहां शिष्यका श्री विद्यानन्दगुरुजी महाराजके प्रति सविनय प्रश्न है कि महाराज बतलाओ वह हेत्वाभास फिर क्या पदार्थ है ! जिससे कि साध्यको जानने में उत्पन्न हो रहा ज्ञान स्वार्थानुमा नका सहज विपर्यय कहा जाय ! और जो मतिज्ञान, स्मरणज्ञान, प्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिज्ञान, इनके समान वह स्वार्थानुमानका विपर्यय भी अपने विषय में तमारा, कामल आदि कारणों के वशसे हो रहा स्वीकार कर लिया जाय । इस प्रकार प्रतिपाथका समीचीन प्रश्न होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य संक्षेप और विस्तार से स्वाभासका प्रदर्शन कराते हैं ।
हेत्वाभासस्तु सामान्यादेकः साध्याप्रसाधनः ।
यथा हेतुः स्वसाध्येनाविनाभावी निवेदितः ॥ २४ ॥
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सामान्यस्वरूपसे विचारा जाय तब तो " साध्यको बढिया रीति से नहीं साधनेवाला हेतु यह एक ही हेत्वाभास कहा गया है। जैसे कि अपने साध्यके साथ अविनाभाव रखनेवाला सद्धेतु एक ही प्रकारका निवेदन किया गया है। अर्थात् - साध्य के साथ अविनाभाबीपन करके निश्चित किया गया जैसे सामान्य रूपसे सद्धेतु एक प्रकार है, उसी प्रकार अपने साध्यको अच्छे ढंग से नहीं साधनेवाला देवाभास भी एक प्रकारका है। यही हमारा ग्रन्थकारका सिद्धान्त है ।