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तत्त्वार्थचोकवातके
विचारके अन्तमें स्थित हो रहा है, इस प्रकार यह दृष्टान्त कहा जाता है। अतः दृष्टान्तका अर्थ पक्ष हुआ। स्वदृष्टान्तका अर्थ स्वपक्ष होगा और फिर इसी प्रकार प्रतिदृष्टान्तका अर्थ प्रतिपक्ष ही माना गया। इस प्रकार उस प्रतिपक्षके धर्मको स्वपक्षमें स्वीकार करनेवाले पुरुषके न्यायके विरोधसे जो इस प्रकार प्रतिज्ञा कर लेना है कि इन्द्रियग्राह्य सामान्य यदि नित्य है तो तैसा इन्द्रियप्राह्य होता हुआ शब्द भी नित्य हो जाओ, इस प्रकार कह रहे वादीके शब्दके नित्यस्वकी प्रतिज्ञाका त्याग हो गया है, ऐसा निश्चय है । अर्थात्-शब्दके अनित्यपनकी प्रतिज्ञाको छोड देनेवाळे वादीके प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान मानना चाहिये। भाष्यकारने जो घट भी नित्य हो जाओ, इस प्रकार दृष्टान्तके छोड देमेसे प्रतिज्ञाहानि बतलायी है । वह न्यायसिद्धान्तसे विरुद्ध पडती है ।
इत्येतच न युक्तं स्यादुद्योतकरजाड्यकृत् । प्रतिज्ञाहानिरित्थं तु यतस्तेनावधार्यते ॥ ११८ ॥ सा हेत्वादिपरित्यागात् प्रतिपक्षप्रसाधना । प्रायः प्रतीयते वादे मंदबोधस्य वादिनः ॥ ११९ ॥ कुतचिदाकुलीभावादन्यतो वा निमिचतः ।
तथा तद्वाचि सूत्रार्थो नियमान व्यवस्थितः ॥ १२० ॥
अब आचार्य महाराज कहते हैं कि चिन्तामणिके ऊपर उद्योत नामक टीकाको करनेवाले उद्योतकर का इस प्रकार यह कहना युक्त नहीं है। विचारा जाय तो ऐसा कहना उद्योतकरकी जडताको व्यक्त करनेवाला है । उद्योत करनेवाला चन्द्रमा शीतल जलमय स्वभाववाग है, कविजन "रलयोर्डलयोश्चैव शषयोर्वबयोस्तथा " इस नियमके अनुसार ल और ड का एकत्वारोप कर लेते हैं अतः उद्योतकरमें जडता स्वभावसे प्राप्त हो जाती है। जिस कारणसे कि उस उद्योतकर करके इस ही प्रकारसे प्रतिबाहानिका होना जो नियमित किया जाता है, सो ठीक है। क्योंकि हेतु, दृष्टान्त आदिके परित्यागसे भी वह प्रतिज्ञाहानि हो सकती है । जबतक कि प्रतिवादीद्वारा अपने प्रतिपक्ष की भळे प्रकार सिद्धि नहीं की जायगी, तबतक वादीका निग्रहस्थान नहीं हो सकता है। प्रायः अनेक स्थलोंपर वादमें प्रतीत हो रही है कि मन्दज्ञानवाले वादीकी किसी भी कारणसे आकुलता हो जानेके करण अथवा अन्य किसी भय बादिक निमित्तकारणोंसे तिस प्रकार वह वादी भातुर होकर झट अपनी प्रतिज्ञाको छोडकर विपरीत प्रतिज्ञाको कर बैठता है। ऐसी दशामें नियमसे उनके कहे गये वचनोंमें सूत्रका अर्थ यथार्थ व्यवस्थित नहीं हो सका । आप्तके ही वचन यथार्थ व्यवस्थित हो सकते हैं, अबानियोंके नहीं।