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________________ ८८ तस्वार्थश्लोकवार्तिके न चैवमप्रसिद्धविशेष्यादिदोषः पक्षादेः सम्भवति केवलं मीमांसकान्प्रति यदेतत्साधनं तदा प्रत्यक्षं विशदं सूक्ष्माद्यर्थविषयं साधयत्येवानवद्यत्वात् । इस प्रकार सामान्यज्ञान या सामान्य प्रत्यक्षको पक्ष करनेपर पक्ष, साध्य, प्रतिज्ञा, आदिके अप्रसिद्धविशेष्यता, अप्रसिद्धविशेषणता, स्वरूपासिद्धि, आश्रयासिद्धि, आदिक दोष नहीं सम्भवते हैं । केवल मीमांसक विद्वानोंके सन्मुख ही जब यह हेतु प्रयुक्त किया जायगा तब तो कोई प्रत्यक्षज्ञान ( पक्ष ) अतीव विशद होता हुआ सूक्ष्म, व्यवहित, आदि पदार्थोंको विषय कर रहा ( साध्य ) साधा जारहा ही है | क्योंकि हेतुदोषोंसे पदत होनेके कारण हमारा हेतु निर्दोष है । अथवा निर्दोष होने के कारण ( हेतु ) किसी आत्मामें हो रहा विशिष्टप्रत्यक्ष ( पक्ष ) सभी सूक्ष्म आदिक युगपत्करलेता है ( साध्य ) ! यह हमने पूर्व अनुमानसे साध्य किया है । 1 यदा तु नास्तिकं प्रति सर्वार्थगोचरं ज्ञानसामान्यं साध्यते तदा तस्य करणक्रमव्यवधानातिवर्त्तित्वं स्पष्टत्वं च कथं सिध्यति इत्याह । कोई पूछता है कि आप जैनोंका अनुमान मीमांसकोंके प्रति तो ठीक बैठ गया और नास्तिकों के प्रति मी ज्ञान सामान्यको पक्ष बनाकर सम्पूर्ण अर्थोका विशद जानना साधा जा सकता है । किन्तु आप जैन जब नास्तिकवादियों के प्रति ज्ञान सामान्यको सम्पूर्ण अर्थोका विषय करनेवाला साधते हैं, तब उस सम्पूर्ण अर्थों के ज्ञानको इन्द्रियोंके क्रमपूर्वक वर्त्तनेसे हुये व्यवधानका उल्लंघन ( युगपत् ) करलेनापन और स्पष्टपना भला कैसे सिद्ध हो जाता है ! बताओ। इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य यों समाधान कहते हैं, सो सुनिये । तच सर्वार्थविज्ञानं पुनः सावरणं मतं । अदृष्टत्वाद्यथा चक्षुस्तिमिरादिभिरावृतं ॥ ३१ ॥ ज्ञानस्यावरणं याति प्रक्षयं परमं कचित् । प्रकृष्यमाणहानित्वामादौ श्यामिकादिवत् ॥ ३२ ॥ ततोऽनावर स्पष्टं विप्रकृष्टार्थगोचरं । सिद्धमक्रमविज्ञानमकलंकं महीयसाम् ॥ ३३ ॥ स्वभाव से ही सम्पूर्ण अर्थोको जाननेवाला वह विज्ञान फिर ( पक्ष ) आवरणोंसे सहित हो रहा ( साध्य ) माना जा चुका है । दृष्टव्य सम्पूर्ण पदार्थोंका प्रत्यक्ष कर लेना नहीं होने से ( हेतु ) जैसे कि तमारा, रतोंध, कामल आदि दोषों से ढका हुआ नेत्र ( अन्वयदृष्टान्त ) । अर्थात्-संसारी जीवोंकी चेतना शक्तिके ऊपर आवरण और दोष आ गये हैं । अतः वह ज्ञान इन्द्रियोंके क्रमसे वर्तनेपर व्यवधान युक्त हो जाता है। अविशद हो जाता है। हां, आवरणोंके सर्वथा दूर हो जानेपर
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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