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________________ २९२ तत्वार्थकोकवार्तिके R EAMERISTMETHERamanus........................................ - विचार अनुसार ही प्रमाणोंकी प्रमाणताको कुछ देर के लिये इष्ट करते हुये व्यबहारको पुष्ट किया है। ऋजुसूत्र नयकी पुष्टि करते हुये क्षणिक एकान्तका प्रत्यारव्यान कर दिया है । शब्दमयका लक्षण करते हुये काल आदिका भेद होनेपर भिन्न अर्थपनेको अन्वय व्यतिरेक द्वारा साधते हुये शब्दशक्तिका निरूपण किया है। इसी प्रकार समभिरूढनयद्वारा शब्दकी ग्रन्थियोंको सुलझाया गया है। एवंभूत नयका लक्षण कर सभी प्रकारके शब्दोंको क्रियावाचीपना समझा दिया गया है। कुनय, सुनयका विवेक कर अर्थनय शब्दनयोंकी गिनती गिनाते हुये नयोंके अल्पविषय, बहुविषयपनेका निर्णय कर दिया है । इसमें उठाये गये विपर्ययोंका निराकरण किया है। पश्चात् प्रमाणसप्तभंगीके समान नयसप्तभंगियोंको बनानेके लिये प्रकरण उठाया गया है। मूलनयोंकी इक्कीस सप्तभंगियोंको बना कर उत्तरनयोंकी एकसौ पिचत्तर सप्तमंगियां बनाई हैं। पूर्व पूर्व नयोंकी अपेक्षा विधिकी कल्पना करते हुये उत्तर नयों द्वारा प्रतिषेधकी कल्पना कर झट सप्तभंगियां बना ली जाती हैं। अनुलोम, प्रतिलोम, करके तथा उत्तरनयोंद्वारा अभिप्रेत किये गये धर्मोकरके अनेक सप्तभंगियां बन जाती हैं। वस्तुमें तदात्मक हो रहे धर्मोकी भित्तिपर अनेक भंगोंकी कल्पनायें हो जाती हैं। " स्यात् " और " एव" शब्दका प्रयोग करना सर्वत्र आवश्यक है। सकलादेशसे प्रमाण सप्तभंगी और विकलादेशसे नयसप्तभंगीकी व्यवस्था है । किसी धर्मका आश्रय कर उसके द्वारा पहिले भंगको बताकर प्रतिपक्षधर्मकी अपेक्षासे द्वितीय भंगको बना लेना चाहिये । दोनों धर्मोकी क्रमसे विवक्षा करनेपर तीसरा भंग उभय बना लेना । तथा दोनों धर्मोके साथ कहनेका अभिप्राय रखनेपर चौथा अबक्तव्य भंग बन जाता है । पहिले और चौथेको जोड देनेसे पांचवां तथा दूसरे और चौथेको जोड देनेसे छठा एवं तीसरे और चौथेको मिला देनेसे सातवां भंग बन जाता है। अतिरिक्त भंगोंकी कल्पना नहीं हो सकती है । दो अस्तित्व या दो नास्तित्व अथवा दो अवक्तव्य एक मंगमें महीं ठहर सकते हैं । जगत्में एक धर्मकी अपेक्षा सात ही वचनोंके मार्ग सम्भवते हैं। न्यून या अधिक नहीं । ये नये शब्दनय, ज्ञाननय, अर्थनय, तीन प्रकारकी हैं । उत्तरवर्ती नयोंकी प्रवृत्ति होनेपर पूर्वनय नियमसे प्रवर्त जाती हैं। किन्तु पूर्वनयोंकी प्रवृत्ति होनेपर उत्तरनयोंका प्रवर्तना माज्य है । प्रमाण और नयोंका मी परस्परमें इसी प्रकार विषयगमन होता है । इस प्रकार नयोंका वर्णन कर अधिक विस्तारसे जाननेवालोंके प्रति नयचक्र प्रन्थका चिन्तवन करनेके लिये हितोपदेश देकर श्री विद्यानन्द स्वामीने इस नय प्रतिपादक सूत्रके विवरणको समाप्त किया है। पूर्णार्थज्ञरविप्रमाणविषयांशाभासनेस्रोपमा । भाट्टन्याकरणज्ञसौगतजनानुत्सारयन्तोऽपथात् ॥ संख्याताः प्रभिदा निदर्शन तदाभानेकभङ्ग यन्विताः। स्वायत्ताखिलवाङ्मयैर्दधतु वो ज्ञप्ति नयाः स्वामिभिः ॥१॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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