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________________ ३६८ तत्वार्यश्लोक वार्तिके कि इन्द्रियजन्य ज्ञान द्वारा ग्राह्य होनेसे शब्द अनित्य है । इस प्रकार अपने नैयायिक या वैशेषिक के मत में प्रसिद्ध हो रहे गोत्व, अश्वत्व, आदि जातियोंके अनित्यपनका विरोध हो जानेसे वह हेतु विरुद्ध है । भावार्थ – कोई नैयायिक व्यभिचारस्थल में पडे हुये अपने अभीष्ट नित्य सामान्यकी अपेक्षा नहीं कर यों समझता हुआ कि बौद्धके यहां तो सामान्यको अवस्तु या अनित्य माना गया है । यदि बौद्धके प्रति ऐन्द्रियकत्व हेतुसे शद्वका अनित्यपना सिद्ध करने लगे तो भी नैयायिकका हेतु विरुद्ध पड जायगा | क्योंकि नैयायिक या वैशेषिकों के यहां जातियोंके अनित्यपनका विरोध है । इस प्रकार उद्योतकरका अभिप्राय है। आचार्य कहते हैं कि उनका वह कहना मी चातुर्यपूर्ण नहीं है । इसको वार्त्तिककार स्वयं स्पष्ट कर कह देते हैं । तावैन्द्रियकत्वे तु निजपक्षानपेक्षिणि । स प्रसिद्धस्य गोत्वादेरिति तत्त्वविरोधतः ।। ९६५ ।। स्याद्विरोध इतीदं च तद्वदेव न भिद्यते । अनैकांतिकतादोषात्तदभावाविशेषतः ॥ १६६ ॥ अपने पक्षकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले ऐन्द्रियकत्व देतुके होनेपर तो नैयायिकको विरोध दोष लागू होगा। क्योंकि उसके यहां प्रसिद्ध हो रहे गोत्व आदि सामान्यको उस अनित्यपनका विरोध है । अतः वह हेतु प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थानका प्रयोजक होगा, इस प्रकार उद्योतकरका अभिप्राय हमको प्रशस्त नहीं जचता है । घूम, व्यापकपन आदिको साधने के लिये दिये गये अग्नि, प्रमेयस्व, आदि प्रसिद्ध व्यभिचारी हेत्वाभासों के समान यह ऐन्द्रियकत्व हेतुके ऊपर उठाया गया विरुद्ध दोष तो अनैकान्तिक दोषसे भिन्न नहीं माना जाता है । क्योंकि हेतुके ठहर जानेपर उस साध्यके नहीं ठहरनेकी अपेक्षा यहां कोई विशेषता नहीं है। अतः इसको प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान नहीं मानकर क्लृप्त आवश्यक दोष रूप से माने गये ) अनैकान्तिक दोषमें अन्तर्भाव करलेना चाहिये । वादीतरप्रतानेन गोत्वेन व्यभिचारिता । हेतोर्यथा चैकतरसिद्धेनासाधनेन किम् ॥ १६७ ॥ प्रमाणेनाप्रसिद्धौ तु दोषाभावस्तदा भवेत् । सर्वेषामपि नायं विभागो जडकल्पितः ॥ १६८ ॥ जिस प्रकार कि बादी और प्रतिवादी दोनोंके यहां प्रसिद्ध हो रहे गोत्व, सामान्य करके हेतुका व्यभिचार दोष है, उसी प्रकार वादी या प्रतिवादी दोनोंमेंसे किसी मी एकके यहां प्रसिद्ध हो रही गोल जाति करके भी व्यभिचार हो सकता है । अर्थात् उद्योतकरका यह अभिप्राय प्रतीत
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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