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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ३६९ होता है कि वादी, प्रतिवादी, दोनोंके यहां प्रमाणोंसे सिद्ध किये पदार्थ करके तो व्यभिचार दोष वादीके ऊपर उठाया जायगा और किसी एकके यहां ही प्रसिद्ध हो रहे पदार्थकरके तो वादीके ऊपर प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान उठाया जायगा । इसपर बाचार्योका यह कहना है कि एक हीके यहां प्रसिद्ध हो रहे नित्य गोत्वकरके भी वादीके ऊपर व्यभिचार दोष ही उठाना चाहिये । साध्यको नहीं साधनेवाले ऐसे खोटे हेतुसे क्या कार्य होगा ? यानी कुछ नहीं । हां, दोनोंके यहां जो पदार्थ प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं है, उस पदार्थकरके उस व्यभिचार दोष उठानेकी प्रेरणा करना तो दोष नहीं है, किन्तु समीके यहां दोषाभाव ही उस समय माना गया है। तिस कारणसे यह विभाग करना जडपुरुषों के द्वारा कल्पित किया गया ही समझा जाता है । उद्योतकर (चंद्रविमान) स्वयं जड है । उसके द्वारा वादी और प्रतिवादी दोनोंके यहां प्रसिद्ध हो रहे पदार्थकरके तो व्यमिचार दोषका उठाया जाना और एकके यहां प्रसिद्ध हो रहे पदार्थकरके प्रतिज्ञाविरोध निग्रहस्थान का उठाया जाना, इस प्रकार जो विभाग किया है, वह जडकी कल्पना कहनी पडती है। नैयायिकोंने ज्ञानसे सर्वथा मिन कह कर आत्माको अज्ञ मान लिया है। अतः नैयायिक जीव जड हुये। सोयमुद्योतकर स्वयमुभयपक्षसंपतिपत्रस्त्वनैकांतिक इति प्रतिपचमानो वादिनः प्रतिवादिन एव प्रमाणतः सिद्धन गोत्वादिनानैकांतिकचोदनेन हेतोविरुखमुत्तरं ब्रुवाणमतिक्रमेत कथं न्यायवादी ? अप्रमाणसिद्धेन तु सर्वेषां तच्चोदनं दोषाभास एवेति तद्विभागं कुर्वन् जडत्वमात्मनो निवेदयति । वाचार्य कहते हैं कि यह प्रसिद्ध हो रहा उद्योतकर विद्वाम् स्वयं इस तत्वको समझ रहा है कि वादी, प्रतिवादी, दोनोंके पक्षोंमें जो भळे प्रकार व्यभिचारीपनेसे निर्णीत कर लिया गया है, वह अनेकान्तिक हेत्वाभास है। किन्तु यहां केवळ वादीके ही पक्षमें अथवा प्रतिवादीके ही दर्शनमें प्रमाणसे सिद्ध हो रहे गोत्व आदि सामान्पकरके हेतुके व्यभिचार दोषको तर्कणा करनेसे विरुद्ध उत्तरको कहनेवालेका अतिक्रमण करेगा। भला ऐसी दशामें वह न्यायपूर्वक कहनेवाला कैसे हो सकता है ! अर्थात्-दोनों या एकके भी यहां प्रसिद्ध हो रहे नित्य गोत्व करके ऐन्द्रियिकत्व हेतुका व्यभिचारीपना नहीं मानकर दोष उठानेवाले के उत्तरको विरुद्ध कह देना यह ज्योतकरका न्याय करना उचित नहीं है । हाँ, जो पदार्थ दोनों वादी प्रतिवादियोंके यहां अथवा एकके भी यहां प्रमाणोंसे सिद्ध नहीं, उस पदार्थ करके अनेकांतिकपनेका कुचोध उठाना तो सब दार्शनिकोंके या दोषामास ही माना गया है । इस कारण उस विरुद्ध उत्तररूप प्रतिवाविरोध निग्रहस्थान और अनैकान्तिकपनके विभागको कह रहा उद्योतकर पण्डित अपने आप अपना जडपना व्यक्त करनेका . विज्ञापन दे रहा है। यानी जडपनेका इससे अधिक और निवेदन क्या हो सकता है! 47
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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