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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः १२१ AAAAAAAA का निग्रहस्थान ही है। यदि उन अप्रतिमा या अज्ञानके भेद प्रभेदरूप प्रकारोंका पृथक् पृथक् निग्रहस्थानरूपसे सद्भाव माना जावेगा तो अत्यन्त थोडी बाईस चौवीस संख्योंमें कहे गये इन प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रहस्थानोंसे मम क्या पूरा पडेगा ! निग्रहस्थानों के पचासों मेद बन बैठेंगे । तुमको ही महान् गौरव हो जानेका दोष उठाना पडेगा । अतः जो नियत निग्रहस्थानोंमें गर्मित हो सकते हैं, उनको न्यारा निग्रहस्थान नहीं मानो। भले पुरुषोंकी बात भी स्वीकार कर लेनी चाहिये। यच्चोक्तं कार्यव्यासंगात्कथाविच्छेदो विक्षेपः यत्र कर्तव्यं व्यासज्यकथां विच्छिनत्ति प्रतिश्यायः कलामेको क्षणोति पश्चात्कथविष्यामीति स विक्षेपो नाम निग्रहस्थानं तथा तेनाज्ञानस्याविष्करणादिति तदपि न सदित्याह । और भी जो नैयायिकोंने बीसवे निग्रहस्थानका लक्षण गौतमसूत्रमें यों कहा है कि जहां कर्तव्य कार्यसे वादकथाका विच्छेद कर दिया जाता है, वह विक्षेप निग्रहस्थान है । अर्थात्-अन्य कालोंमें करनेके लिये असम्भव हो रहे कार्यका इसी कालमें करने योग्यपनको प्रकट कर ब्याक्षिप्त. मना होकर चाल कथाका विच्छेद कर देता है । अपने साधने योग्यअर्थकी सिद्धि करनेको अशक्य समझकर समय बिताने के लिये कोई एक झूठे मूठे कर्तव्यका प्रकरण उठाकर उसमें मनोयोगको लगाता हुआ दिखला रहा वादी वादकथामें विघ्न डालता है, कि यह मेरा अवश्यक कर्तव्य कार्य नष्ट हो रहा है । अतः उस कार्यके कर चुकनेपर पीछे में वाद करूंगा । इस प्रकार अज्ञानप्रयुक्त निर्बलता को दिखाते हुये वादी या प्रतिवादीका विक्षेप नामक निग्रहस्थान हो जाता है। हां, वास्तविकरूपसे किसी राज्य अधिकारी (माफिसर ) द्वारा बुलाये जानेपर या कुटुम्बी जनोंद्वारा आवश्यक कार्यके लिये टेरे जानेपर अथवा वक्ताके घरमें आग लग जानेपर एवं शिरःशूल, अपस्मार ( मृगी) उदर पीडा भादि रोगों करके प्रतिबन्ध हो जानेपर तो विक्षेप नामका निग्रह नहीं हो सकता है। जैसे कि मल्लको मित्ती ( कुश्ती ) मिडनेके अवसरपर कोई आवश्यक सत्य विघ्न उपस्थित हो जाता है तो प्रतिमल्लकरके मल्लका का निग्रह हुमा नहीं समझा जाता है । जगत्के प्राणियोंको प्रायः अनेक कार्योंमें बलवान् विघ्न उपस्थित हो जाते हैं। क्या किया जाय, परवशता है। हां, अज्ञान छल कोरा अभिमान ( शेखी ) सिलविल्लापन बादि हेतुओंसे कथाका विच्छेद कर देना अवश्य दोष है। भाष्यकार कहते हैं कि ऐसा पुरुष कर्तव्यका व्यासंग कर प्रारम्भ हुये वादका विघात कर रहा है। वह कह देता है कि श्लेष्म ( जुकाम) या पीनस रोग मुझको एक कलातक पीडित करता है। ५१. पांच सौ चालीस निमेष काढतक तुम ठहये। शरीर प्रकृतिके स्वस्थ होनेपर पीछे में शास्त्रार्थ करूंगा। नैयायिक कहते हैं कि इस प्रकार उसका वह विक्षेप नामका निग्रहस्थान है। क्योंकि तिस प्रकार उस व्याकुलित मनवाने अपने ज्ञानको ही प्रकट किया है। इस प्रकार नैयायिकोंके कह
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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