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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः नहीं है । सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार कह रहा प्रतिवादी शब्दको अवश्य स्वीकार करता है । शशविषाणके समान असत् पदार्थके प्रयत्नान्तरीयकत्व, अनित्यत्व, व्याप्ति आदिक धर्म नहीं हो सकते हैं । इस कारण उत्पत्तिके पहिले यह तुम्हारे विचार अनुसार नित्य हो रहे उस शब्दका विशेषण लगाना व्यर्थ पडा, जो बात यों ही विना कहे प्राप्त हो जाती है, उसको विशेषण लगा कर पुनः कहना निष्प्रयोजन है । ५०३ अपरे तु प्राहुः, प्रागुत्पत्तेः कारणाभावादित्युक्ते भर्थापत्तिसमैवेयमिति प्रागुत्पत्तेः प्रयत्नानंतरीयकत्वस्याभावादप्रयत्नानंतरीयकत्वाच्च इति कृतेऽसत्प्रत्युत्तरं ब्रूते । नायं नियमो प्रयत्नानंतरीयकत्वं नित्यमिति तु न हि तस्य गतिः किंचिन्नित्यमाकाशाद्येव, किंचिदनित्यं विद्युदादि, किंचिदसदेवाकाशपुष्पादिति । एतत्तु नापरेषां युक्तमिति पश्यामः । कथमिति । यत्तावदसत्तदमयत्नानंतरीयकत्वं वाजन्मविशेषणत्वात् यस्याप्रयत्नानंतरं जन्म तदप्रयत्नानंतरीयकं न चाभावो विद्यते अतो न तस्य जन्म यच्चासत् किं तस्य विशेषमस्ति एतेन नित्यं प्रयुक्तं न हि नित्यमप्रयत्नानंतरीयकमिति युक्तं वक्तं, तस्य जन्माभावादिति जातिलक्षणाभावान्नेयमनुत्पत्तिसमा जातिरिति चेत् । नानुत्पत्तेरहेतुभिः साधर्म्यात् पटोs - नुत्पन्नैस्तन्तुभिस्तद्यथानुत्पन्नास्तंतबो न पटस्य कारणमिति । 1 दूसरे विद्वान् तो यहां बहुत अच्छा यों कह रहे हैं कि उत्पत्तिके पहिले ज्ञापक कारणके अभाव हो जाने से प्रत्यवस्थान देना अनुत्पत्तिसम जाति है । इस प्रकार कह चुकनेपर यह अर्थापत्तिसमा नामकी ही जाति हुई । क्योंकि अर्थापत्ति करके प्रतिकूल पक्षकी सिद्धि कर देनेसे अर्थापत्तिसमा जाति हुई मानी गयी है । जैसे कि अनित्यता के साधक प्रयत्न अनंतरीयकत्वके साधर्म्यसे शद्ध अनित्य है, तो नित्यके साधर्म्यसे शब्द नित्य भी हो जायगा । शद्वका नित्यके साथ स्पर्शरहितपन साधर्म्य तो है । अर्थात् आकाश, आत्मा, जाति, आदिक पदार्थ स्पर्शरहित हो रहे नित्य हैं । गुणमें अन्य गुणोंके नहीं रहनेके कारण इस शद्वगुणमें भी स्पर्श नहीं है। यहां जिस प्रकार अर्थापत्तिसमा जाति है, उसी प्रकार उत्पत्तिके पहिले शद्वमें प्रयत्न अनन्तर भावित्वके नहीं होनेसे और ठक करके अनुक्तका आक्षेप कर लेना स्वरूप अर्थापत्ति करके शद्रका अप्रयत्नान्तरीयकपना हो जाने से नित्यत्व प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार कथन करनेपर प्रतिवादी तो जातिस्वरूप असमीचीन प्रत्युउत्तर कह रहा है । कारण कि यह तो नियम नहीं है कि जो अप्रयत्नानंतरीयक होय वह पदार्थ नित्य ही माना जाय । अप्रत्नानंतरीयकपनेसे उस नित्यपनेके ज्ञाप्ति नहीं हो पाती है। देखिये कि पुरुषप्रयत्न के अव्यवहित उत्तर काल में नहीं जन्यपना रूप अप्रयत्नान्तरीयकपना होते हुये कोई कोई आकाश का द्रव्य आदिक पदार्थ तो नित्य ही हैं । और पुरुषप्रयत्नसे अजन्य हो रहे कोई अप्रयत्नानंतरीयक पदार्थ तो अनित्य है । जैसे कि बिजली, मेघ, गांधी, ऋतुपलटना, भूकम्प, आदि हैं ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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