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________________ ५०३ तत्वार्यचिन्तामणिः तुम्हारे (वादी) पक्षमें कोई न कोई दूषण होवेगा । इस प्रकारकी शंका उठाना पिशाचीसमा जाति है । कार्यकारणभाव सम्बन्धसे जुडे हुये कुलाल घट, या अग्नि धूम, आदि पदार्थोंमें यह इसका कार्य और यह इसका कारण है, इस व्यवस्था को नियत करनेके लिये उपकारक कारणकी ओरसे उपकृत कार्यमें आया हुआ उपकार कल्पित किया जायगा । भिन्न पडा हुआ वह उपकार भी इस कार्य या कारणका है ? इस सम्बन्ध व्यवस्थाको नियत करनेके लिये पुनः अन्य उपकारोंकी कल्पना करना बढ़ता चला जायगा । ऐसी दशामें अनवस्था हो जायगी । उपकारकी समीचीन व्यवस्था नहीं होने से प्रतिवादीद्वारा यह अनुपकारसमा जाति उठायी जाती है । तिसी प्रकार विपर्ययसमा, भेदसमा, अभेदसमा, आकांक्षासमा, विभावसमा आदि जातियां भी गिनायी जा सकती है । ये चौवीस जातिया तो उपलक्षण हैं । असंख्य जातियां बन सकती हैं । अप्रशस्त उत्तर अनेक हैं । I तत्रोत्तरमिदं शब्दः प्रयत्नानंतरोद्भवः । प्रागदृष्टिनिमित्तस्याभावेप्यनुपलब्धितः ॥ ४४७ ॥ सत्त्वाभावादभूत्वास्य भावो जन्मैव गम्यते । नाभिव्यक्तिः सतः पूर्वं व्यवधानाव्यपोहनात् ॥ ४४८ ॥ अब न्यायसिद्धान्ती कार्यसमा जातिका असत् उत्तरपना साधते हैं। " कार्यान्यत्वे प्रयत्नाहेतुत्वमनुपलब्धिकारणोपपत्तेः " शब्दको यदि कार्य पदार्थोंसे भिन्न माना जायगा, तो पुरुषप्रयत्न उसका हेतु नहीं हो सकेगा । यदि अभिव्यक्ति पक्षमे आवारक वायु आदिके दूर करनेके लिये पुरुष प्रयत्नकी अपेक्षा करोगे तो उच्चारणसे पहिले विद्यमान हो रहे शब्दकी अनुपलब्धिके कारण सिद्ध करना चाहिये। जहां प्रयत्नके अनन्तर किसी पदार्थकी अभिव्यक्ति होती है, वहां उच्चारणके पहिले अनुपलब्धिका कारण कोई व्यवधायक पदार्थ मानना पडता है । व्यवधानको अलग करदेने से प्रयत्न के अनन्तर होनेवाले अर्थकी ज्ञप्ति हो जाना स्वरूप अभिव्यक्ति हो जाती है । किंतु वहां उच्चारणसे पहिले शब्दको यदि विद्यमान माना जाय तो उसकी अनुपलब्धि के कारण कुछ भी नहीं प्रतीत होते हैं, जिनका कि पृथक्करण कर शद्वकी उपलब्धिस्वरूप व्यक्ति मान की जाय । तिस कारणसे सिद्ध होता है कि शद्व स्वीकारणोंसे उत्पन्न ही होता है । प्रकट नहीं होता है। इस न्यायभाष्यका अनुवाद करते हुये श्री विधानन्द आचार्य कहते हैं कि उस कार्यसमाको जाति सिद्ध करने में हमारा यह उत्तर है कि शद्व ( पक्ष ) प्रयत्न के अनन्तर उत्पन्न हुआ है ( साध्य ) । क्योंकि उच्चारणके पूर्व में शकी अनुपलब्धिके निमित्तका अभाव होते हुये भी उस समय शद्वकी अनुपलब्धि हो रही है ( हेतु ) । जैसे कि घटकी उत्पत्ति के पूर्व समयों में घटकी अनुपलब्धि होनेसे घटका उत्पन्न होना माना जाता है ( अन्य दृष्टान्त ) । " अभूत्वाभावित्वं कार्यस्वम् " । पहिले नहीं होकर पुनः कार
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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