SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचोकवार्तिके संरक्षणाके लिये नहीं होता है। जल्प और वितंडाके ही तिस प्रकार तत्वनिर्णयका संरक्षण करना रूप प्रयोजनसहितपना बन रहा है । वही " न्यायदर्शन पुस्तकमें गौतम ऋषिने चौथे अध्यायके अन्तमें कहा है कि जल्प और वितंड। दोनों तो तत्त्वोंके निर्णयकी भले प्रकार संरक्षणा करनेके लिये हैं। जैसे कि बीजके बोनेपर उपजे हुये छोटे छोटे अङ्करोंकी समीचीन रक्षाके लिये बंवूल, बेरिया, झडवेरिया आदिक कंटकाकीर्ण वृक्षोंकी शाखाओं करके किया गया आवरण ( मैड ) उपयोगी है। छळ या असत् उत्तर आदि प्रयुक्त किये जाय तो पररक्षाका विघात हो जानेसे वे स्वपक्षकी रक्षा करा देते हैं । यहांतक नैयायिक कह चुके । अब आचार्य महाराज कहते हैं कि उनका यह कहना केवळ अनर्थक बकवाद है। यथार्थमें विचारा जाय तो वादको ही तत्त्वनिर्णयकी संरक्षणारूप प्रयोजनसे सहितपना सवता है । उसीको स्पष्ट करते हुये यों अनुमान बनाकर दिखलाते है कि वाद ही ( पक्ष ) तत्वों के निर्णयकी रक्षा करनेके लिये है ( साध्य ) । प्रमाण और तर्ककरके स्वपक्षसाधन करना और परपक्षमें उलाहना देना होते संते तथा सिद्धान्तसे अविरुद्धपना होते संते तथा अनुमान के पांच अवयवोंसे सहितपना होते संते पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह करना होनेसे ( हेतु ) जो तिस प्रकार तत्त्वनिर्णयका संरक्षण करना स्वरूप प्रयोजनको लिये हुये नहीं है, वह उक्त हेतुप्से सहित नहीं है, जैसे कि गाली देना, रोना, उन्मत्तप्रलाप करना आदिक वचन ( व्यतिरेक दृष्टान्त ), और तिस प्रकार हेतुके पूरे शरीरको साधनेवाला वाद है ( उपनय ) । तिस कारणसे वह वाद ही तत्त्व निर्णयके रक्षणरूप प्रयोजनको लिये हुये है। (निगमन )। यह अनुमानप्रमाण रूप युक्तिका सद्भाव है । सबसे पहिले उपर्युक्त यह हेतु असिद्ध नहीं है । न्यायसूत्रमें आप नैयायिकोंके यहां बादका लक्षण इस प्रकार कहा गया है कि प्रमितिका कारण प्रमाण और अविज्ञात तत्त्वमें कार मोंकी उपपत्तिसे तत्वज्ञानके लिये किये गये विचार रूप तर्कसे जहां स्वपक्षका साधन किया जाय और परपक्षमें दूषण दिया जाय तथा जो सिद्धान्तसे अविरुद्ध होय तथा जो प्रतिज्ञा, हेतु उदाहरण, उपनय, निगमन पांच अवयवोंसे सहित होय ऐसा होता हुआ जो वादमें पडे हुये पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह करना है। यानी युक्ति प्रत्युक्ति रूप वचन रचना है, वह वाद है । आप नैयायिकोंके मत अनुसार ही हेतु पक्षमें बहुत अच्छी तरहसे घटित हो जाता है। पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहादित्युच्यमाने जल्पेपि तथा स्यादित्यवधारणविरोधस्तत्परिहारार्थ प्रमाणतर्कसाधनोपालंभत्वादि विशेषणं । न हि जल्पे तदस्ति, यथोक्तोपपन्नछलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालंभो जल्प इति वचनात् । तत एव न वितंडा तथा प्रसज्यते पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहरहितत्वाच । हेतुमें लगा दिये गये विशेषणोंकी सार्थकताको कहते हैं कि यदि हेतुका शरीर पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह करना मात्र इतना कह दिया जाय तो तिस प्रकार पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy