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तवायं को कवार्तिके
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करने योग्य नहीं है । पहिले से ही 66 ," घट ऐसा बना बनाया सुबन्त पद है । एतावता उन प्रकृति या प्रत्ययको अनर्थकपना नहीं है। यदि आप नैयायिक यों कहें कि अधिक प्रकट हो रहे अर्थ नहीं होने से केवल प्रकृति या केवळ प्रत्यय तो अर्थशून्य है, तब तो हम कहेंगे कि इस प्रकार केवळ पदको भी अनर्थकपना है । ऐसी दशामें अकेले निरर्थक निग्रहस्थान से ही कार्य चल जायगा । अपार्थकका क्यों व्यर्थ में बोझ बढाया जाता है । जिस ही प्रकार प्रत्ययकर के प्रकृतिका अर्थ प्रकट कर दिया जाता है और स्वकीय प्रकृतिसे प्रत्ययका अर्थ व्यक्त हो जाता है, तिप् प्रत्ययसे भू धातुका अर्थ सद्भाव प्रकट हो जाता है और भू धातुसे तिप्का अर्थ कर्त्ता, एकत्व, वर्तमान कालमें ये प्रकट हो जाते हैं, केवळ प्रकृति या केवल प्रत्ययका तो प्रयोग करना युक्त नहीं है । न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या न केवलः प्रत्ययः | तिस ही प्रकार यानी प्रत्ययकी अपेक्षा रखनेवाली प्रकृति और प्रकृतिकी अपेक्षा रखनेवाळे प्रत्यय के समान ही देवदत्त बैठा हुआ है । जिनदत्त जाग रहा है, मोदक खाया जाता है, इत्यादिक प्रयोगों में सु और जस् आदिक प्रत्ययोंको अन्तमें धारण कर रहे देवदत्त, जिनदत्त, मोदक आदि पदोंके अर्थकी तिप् तस् झि, त, आताम्, झ, आदिक तिङ्, प्रत्ययों को अन्तमें धारण करनेवाले तिष्ठति, जागर्ति, मुज्यते आदिक तिङत पदोंकरके अभिव्यक्ति हो जाती है । तथा तिङन्त पदों के अर्थकी सुबन्त पदकरके प्रकटता हो जाती है । केवल तिङन्त या सुबन्त पदक 1 प्रयोग करना उचित नहीं है । केवळ सुबन्त या तिङन्त पदका अर्थ प्रकट नहीं है । यह यहां भी विचार लिया ही जाता है । यदि नैयायिक यों कहें कि अन्य पदकी अपेक्षा रखते हुये तो प्रकृत पदको सार्थकपना ही है, इस प्रकार कइनेपर तो हम कहेंगे कि वह सार्थकपना तो प्रकृतिकी अपेक्षा रखते हुये प्रत्ययको और प्रत्ययकी अपेक्षा रखते हुये प्रकृति आदिके समान स्वके सार्थकपन को साध ही देता है । सभी प्रकारोंसे कोई विशेषता नहीं है । भावार्थ- परस्पर में अपेक्षा रखनेवाले प्रत्यय और प्रकृतिके समान एक पदको भी दूसरे पदकी अपेक्षा रखना अनिवार्य है । तभी तो " वर्णानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः पदं " परस्पर में सापेक्ष हो रहे वर्णोंका पुनः अन्यकी नहीं अपेक्षा रखनेवाला समुदाय पद है और " पदानां परस्परापेक्षणां निरपेक्षसमुदायो वाक्य " परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा रखनेवाले पदोंका निरपेक्ष समुदाय वाक्य है । तिस कारणसे कहना पडता है कि संगतिसहित अर्थोंको नहीं धारनेवाले असंगत वर्णों या पदोंका निरर्थकपना चाइनेवाले नैयायिक करके असंगत अर्थवाले वाक्योंका भी निरर्थकपमा इष्छ लेना चाहिये । यदि नैयायिक उस असंगत अर्थवाळे वाक्योंके निरर्थकपनको उस अपार्थक निग्रहस्थानसे पृथक्पने करके दूसरा निग्रहस्थानपना इष्ट नहीं करेंगे तब तो हम कहते हैं कि वर्णोंका निरर्थकपन और पदों का निरर्थकपन के अनुसार हुये । निरर्थक और अपार्थकको भी तिस ही प्रकार न्यारे न्यारे निग्रहस्थान की पात्रता नहीं होओ। अतः सिद्ध होता है कि अपार्थकको न्यारा निग्रहस्थान नहीं माना जावे ।