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________________ तत्वार्याचन्तामणिः विद्यमान हैं। इस प्रकार उस अर्थमें यह नव शब्द नहीं वर्तता है, क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान, आदिसे विरोध जाता है । तिस कारण यह नहीं सम्भव रहे अर्थकी कल्पना करके दूसरोंके वाक्योंके ऊपर उलाहना देना उस छळवादीने कल्पित किया है। जो कि वह इष्टसिद्धि करानेमें समर्थ नहीं है। क्योंकि तत्त्वोंकी परीक्षा करनेमें सज्जन पुरुषोंके द्वारा छल, कपट, करके परपक्ष निषेध करना समुचित नहीं है । तिस कारण यह छलपूर्वक कथन करना दूसरे प्रतिवादीका पराजय ही है। इस प्रकार वात्स्यायन ऋषि अपने न्यायभाष्य प्रन्थमें मान रहे हैं। अब आचार्य महाराज उक्त प्रकार मान रहे न्यायमाष्यकर्ताके प्रति समाधान वचन कहते हैं, सो आगे सुनिये । एतेनापि निगृह्येत जिगीषुर्यदि धीधनैः । पत्रवाक्यमनेकार्थ व्याचक्षाणो निगृह्यताम् ॥ २८५॥ तत्र स्वयमभिप्रेतमा स्थापयितुं नयैः। योऽसामोऽपरैः शक्तैः स्वाभिप्रेतार्थसाधने ॥ २८६ ॥ योर्थसंभावयन्नर्थः प्रमाणेरुपपद्यते। .. वाक्ये स एव युक्तोस्तु नापरोतिप्रसंगतः ॥ २८७ ॥ सच पूछो तो वे नैयायिक तत्त्वपरीक्षा करनेके अधिकारी नहीं है । कारण कि यदि जीतनेको इच्छा रखनेवाला विद्वान् केवल अनेक अर्थाका प्रतिपादन करनेसे ही यदि बुद्धिरूप धनको धारनेवालों करके निग्रह प्राप्त कर दिया जायगा तब तो अनेक अर्थवाले पत्रवाक्यका व्याख्यान कर रहा प्रकाण्ड विद्वान् भी निग्रहको प्राप्त कर दिया जाओ। किन्तु इस प्रकार कमी होता नहीं है। भावार्थ-अत्यन्त गूढ अर्थवाले कठिन कठिन वाक्योंको लिखकर जहां पोद्वारा लिखित शास्त्रार्थ होता है, वहां मी उद्भट विद्वानके ऊपर छब्दोष उठाया जा सकता है। क्योंकि पत्रमें अनेक अर्थवाळे गूढपदोंका विन्यास है। किन्तु ऐसा कमी होता नहीं। श्रोताको उचित है कि वह समीचीन गूढपदोंका अर्थ ठीक ठीक लगा लेवें । तहां स्वयं अमीष्ट हो रहे अर्थको हेतुस्वरूप नयों करके स्थापन करने के लिये जो वादी सामर्थ्ययुक्त नहीं है, वह अपने अभिप्रेत अर्थको साधनेमें समर्थ हो रहे दूसरे विद्वानोंकरके पराजित कर दिया जाय । हो, अर्थकी सम्भावनासे जो अर्थ वहां प्रमाणोंकरके सिद्ध हो जाता है, वही अर्थ वाक्यमें लगाना युक्त होवेगा । दूसरा असमवित अर्थ कल्पित कर नहीं लगाना चाहिये । यों करनेसे अतिप्रसंग दोष हो जावेगा। गौ शब्दका प्रायः बहुत व्यवहार होता है। किन्तु उसके वाणी, दिशा, पृथिवी वादि अनेक अर्थ माने गये हैं। अतः संमवित अर्थ ही पकडना चाहिये। हां, जिस धनीपनको साधनेके
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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