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________________ ३९१ तस्वार्थ शोकवार्तिके अंकेच्छेद इकोमिया " " अह्या दोणं दिभवं दिहादोदि सरामयं तुह्य " आदि असंस्कृत शब्दोंसे भी तत्वज्ञान हो गया माना जाता है । अतः शद्बोंसे पुण्य पापकी उत्पत्तिका नियम नहीं है । अधा. मिक पुरुष भी संस्कृत शब्दोंको बोलते हैं। धर्मात्मा भी अपभ्रंश या व्युत्क्रम कथन करते हैं। वृद्धप्रसिद्धितस्त्वेष व्यवहारः प्रवर्तते । संस्कृतैरिति सर्वापशब्दैर्भाषास्वनैरिव ॥ २१९ ॥ वृद्ध पुरुषाओंकी परम्परा प्रसिद्धिसे यह व्यवहार प्रवर्त रहा है कि देशभाषाके शब्दोंकरके जैसे अर्थ निर्णय हो जाता है, उसी प्रकार संस्कृत शब्द और सम्पूर्ण अपभ्रंष्ट शब्दोंकरके मी अर्थ प्रतिपत्ति हो जाती है । विशेष यह है कि हा, अनभ्यास दशामें भले ही किसीको शब्दयोजनाके क्रमसे वाच्य अर्थकी ज्ञप्ति होय, किन्तु अत्यधिक अभ्यास हो जानेपर क्रम और अक्रम दोनों प्रकारसे अर्थ निर्णय हो जाता है । बडी कठिनतासे समझे जाय, ऐसे वाक्योंमें शब्दोंके क्रमको योजना करनी पडती है । किन्तु सरल वाक्योंको व्युत्क्रमसे भी समझ लिया जाता है । ततोनिश्चयो येन पदेन क्रमशः स्थितः। तद्यतिक्रमणादोषो नैरर्थक्यं न चापरम् ॥ २२०॥ तिस कारणसे सिद्ध हो जाता है कि प्रतिज्ञा आदि अवयवोंका क्रमसे प्रयोग किया गया होय या अक्रम निरूपण किया गया होय, श्रोताके क्षयोपशमके अनुसार दोनों ढंगसे अर्थ निर्णय हो सकता है । हां, कचित् जिन पदोंके क्रमसे ही उच्चारण करनेपर अर्थका निश्चय होना व्यवस्थित हो रहा है, उन पदोंका व्यतिक्रमण हो जानेसे श्रोताको अर्थका निश्चय नहीं हो पाता है। यह अवश्य दोष है, एतावता वह निरर्थक दोष ही समझा जायगा । उससे भिन्न अप्राप्तकाल नामक निग्रहस्थान मानने की आवश्यकता नहीं । एतेनैतदपि प्रत्याख्यातं । यदाहोद्योतकरः " यथा गौरित्यस्य पदस्यार्थे गौणीति प्रयुज्यमानं पदं न वत्क्रादिमतमर्थ प्रतिपादयतीति न शब्दाद्याख्यानं व्यर्थ अनेनापशब्दे नासौ गोशब्दमेव प्रतिपद्यते गोशब्दाद्वक्त्रादिमंतमर्थ तथा प्रतिज्ञाद्यवयवविपर्ययेणानुपूर्वी प्रतिपद्यते तयानुपूर्व्यार्थमिति । पूर्व हि तावत्कर्मोपादीयते लोके ततोधिकरणादि मृत्पिरचक्रादिवत् । तथा नैवायं समयोपि त्वर्थस्यानुपूर्वी । " सोयमानुपूर्वीमन्याचक्षाणो नाम व्याख्येयात् कस्यायं समय इति । तथा शास्त्रे वाक्यार्थसंग्रहार्थमुपादीयते संगृहीतं त्वर्थ वाक्येन प्रतिपादयिता प्रयोगकाले प्रतिज्ञादिकयानुपूर्व्या प्रतिपादयतीति सर्वथानुपूर्वी प्रतिपादनाभावादेवाप्राप्तकारस्य निग्रहस्थानत्वसमर्थनादन्यथा परचोद्यस्यैवमपि सिद्धः ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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