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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः इस विषयमें लौकिक मार्ग और शास्त्रीय मार्गमें सभी प्रकारों से कोई विशेषता नहीं है। छोराको दूध पिआदे, मेंटो जामन मरणकू, तन्नमामि परंज्योतिः, धूमात वन्हिमान् पर्वतः " श्रिय क्रियायस्थ, सुरागमे नटत्सुरेन्द्रनेत्रप्रतिबिम्बलांछिता, सभा बभौ रत्नमयी महोत्पलैः कृतोपहारेव स बोऽग्रनोजिनः " इत्यादि वाक्योंमें पदोंका ठीक ठीक विन्यास नहीं होते हुये भी श्रोताको अर्थका निश्चय अब्यवहित उनसे हो जाता है। शद्वान्वाख्यानवैयर्थ्यमेवं चेत्तत्त्ववादिनाम् । नापशद्वेष्वपि प्रायो व्याख्यानस्योपलक्षणात् ॥ २१७ ।। यदि नैयायिक यों कहें कि शब्द आदिसे अप शब्द आदिका स्मरण कर अर्थ ज्ञान कर लेना इस प्रकार तो तत्वोंके प्रतिपादन करनेवाले विद्वानोंका पुनः सुशद्वों द्वारा व्याख्यान करना अथवा पुनः पुनः कथनस्वरूप अन्वाख्यान करना व्यर्थ पडेगा । श्लोकाका अन्वय किया जाता है। क्रम भंगसे कहे गये शद्वोंको पुनः क्रमयुक्त कर वखाना खाता है। अतः क्रमसे या.. शद्बोंसे ही अर्थ प्रतिपत्ति हुई, इस प्रकार कहनेपर तो हम कहते हैं कि यों तो नहीं कहना । क्योंकि अशुद्ध शद्बोंमें भी बाहुल्य करके व्याख्यानका होना देखा जाता है । अर्थात् त्वम् किं पठसि ! तू क्या पढता है ! इसकी इंग्रेजी बनानेपर क्रिया पहिले आ जाती है। अग्नि, विधि, परिधि, आदि पुल्लिंग शब्दोंका वखान देश भाषामें स्त्रीलिंग रूपसे करना पडता है । ग्रामीणोंको समझाने के लिये संस्कृत शब्दोंका शद्रोंका गंवारू भाषामें पण्डितों द्वारा व्याख्यान करना पडता है । तब कहीं वे समझ पाते हैं । अपशद्वोंमें भी अन्वाख्यान हो रहा देखा जाता है। यथा च संस्कृताच्छद्वात्सत्याद्धर्मस्तथान्यतः। स्यादसत्यादधर्मः क नियमः पुण्यपापयोः ॥ २१८ ॥ और जिस प्रकार व्याकरणमें प्रकृति प्रत्ययों द्वारा बनाये गये संस्कारयुक्त प्रत्य शबोंसे धर्म उत्पन्न होता है, उसी प्रकार अन्य ग्रामीण शद्बों या देश भाषाके अशुद्ध किन्तु सत्य शब्दोंमें भी धर्म ( पुण्य ) होता है । तथा असत्य संस्कृत शब्दोंसे जैसे अधर्म (पाप) उपजता है, वैसे झूठे अपभ्रष्ट शबोंसे भी पाप उपजता है। ऐसी दशामें भला पुण्य, पापका, नियम कहां रहा ! कि संस्कृत शब्द चाहे सच्चे या झूठे हों उनसे पुण्य ही मिलेगा और असंस्कृत शब्द चाहे सच्चे ही क्यों नहीं होय, किन्तु उनसे पापकी ही प्राप्ति होगी। उक्त नियम माननेपर देश माषाओंके शास्त्र, विनती पद, सब व्यर्थ हो जायंगे । इतना ही नहीं किन्तु पापबन्धके कारण भी होयेंगे । शवोंसे ही पुण्य पापकी व्यवस्था माननेपर अन्य उपायोंका अनुष्ठान व्यर्य पडेगा। उर्दसे भुसी न्यारी है । " कंडसिपुणुणं स्वेवसिरेंगदहा । जवं पत्येसि खादितुं " " अणत्थ किं फलो वहा तुम्ही इत्य बुधिया छिंदे, 50
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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