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तत्वार्थचिन्तामणिः
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द्वितीय पक्षका ग्रहण करना प्रशस्त है । किन्तु सभी व्यक्तियोंको सदा ऐसे सभी स्थलोंपर रस आदिकोंके वे पांच ज्ञान एक साथ उपज रहे नहीं जाने जाते हैं । जैसे कचौडी मक्षण कर चुकनेपर पीछे रूप, रस आदिकी स्मृतियां क्रमसे ही होती हैं। इस प्रकार उन रूप आदिके पांच ज्ञानोंका भी क्रमसे उपजना देखा जाता है। अर्थात् — उत्तम कचौडी सम्बन्धी रूप, गन्ध, स्पर्श, शद्व, रस, इनके पांच ज्ञान क्रमसे होते हैं। शीघ्र शीघ्र प्रवृत्ति हो जानेसे संस्कारवश आतुर प्राणी युगपत्पका कोरा अभिमान करलेता है ।
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क्रमजन्म कचिद् दृष्ट्वा स्मृतीनामनुमीयते ।
सर्वत्र क्रमभावित्वं यद्यन्यत्रापि तत्समं ॥ १८ ॥
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पूर्वपक्षी कहता है कि हम रूप आदिके ज्ञानोंकी तो एक साथ उत्पत्तिको मान लेते हैं किन्तु उनकी स्मृतियां क्रमसे ही होती हुयी मान ली जाती हैं। क्योंकि किसी भी दृष्टान्तमें स्मृतियोंका क्रमसे हो रहे जन्मको देख करके सभी स्थलोंपर स्मृतिओंके क्रमसे होनेपनका अनुमान कर किया जाता है । इसपर आचार्य महाराज कहते हैं कि यदि इस प्रकार स्मृतिओंका क्रमभावी माना जायगा तब तो सभी रूप आदिक पांच अन्य ज्ञानोंमें भी वह क्रमसे उत्पन्न होनापन समान है । स्मृति और अनुमत्रोंके क्रमसे उत्पाद होनेमें कोई अन्तर नहीं है ।
पंचभिर्व्यवधानं तु शष्कुली भक्षणादिषु । रसादिवेदनेषु स्याद्यथा तद्वत्स्मृतिष्वपि ॥
१९ ॥
हुयी उनकी स्मृतिओंमें पांच
जिस प्रकार पापड भक्षण, पान चवाना आदिके पीछे कालमें या बीचके चार व्यवधायकोंकरके व्यवधान पड जाता है, उन्हींके समान कचौडीमक्षण, पानक ( ठंडाई ) पान आदिक में हुये रस, गन्ध आदिके ज्ञानों में भी तो पांचों करके व्यवधान पड जायगा । पांच अंगुलिभों में देशों के पांच या चार व्यवधान होनेपर भी जैसे पांचपना है, ज्ञानोंमें भी काळ कृत पांच व्यवधान पड जानेसे ही पांचज्ञानपना व्यवस्थित है । विषयोंकी अपेक्षा ज्ञानोंकी संख्या वैसी नियत नहीं है, जैसी कि भिन्न समयों में हो रहीं न्यारी परिणतियों द्वारा ज्ञानोंकी संख्या नियत हो जाती है ।
लघुवृत्तेर्न विच्छेदः स्मृतीनामुपलक्ष्यते ।
यथा तथैव रूपादिज्ञानानामिति मन्यताम् ॥ २० ॥
वेगपूर्वक घूमते हुये चकके समान शीघ्र शीघ्र लाघवसे प्रवृत्ति हो जानेके कारण स्मृतियोंका मध्यवर्ती अन्तराल जिस प्रकार नहीं दीख पाता है, तिस ही प्रकार कचौडी मक्षण आदिमें रूप,