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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
किया है। अतः प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीतिओंसे विरोध नहीं आता है । हम शक्तिस्वरूपकरके ही ज्ञानोंका सहभाव मानते हैं। उपयुक्तस्वरूप करके कई ज्ञानोंका सहभाव एक समयमें नहीं मानते हैं अथवा उपयुक्तस्वरूप करके ही ज्ञानोंका असहमाव ( क्रममाव ) है । शक्ति स्वरूपकरके भी असहभाव होय यों नहीं है । यह सिद्धान्त प्रतीतियोंसे सिद्ध हो रहा है।
सहोपयुक्तात्मनापि रूपादिज्ञानपंचकमादुर्भावमुपयन्तं प्रत्याह ।
जो वादी विद्वान् उपयुक्तपन स्वरूपकरके भी रूप, रस आदिके पांच झानोंकी एक साथ उत्पत्तिको स्वीकार कर रहा है, उसके प्रति अनुवाद करते हुये आचार्य महाराज सिद्धान्त वचनको कहते हैं।
शष्कुलीभक्षणादौ तु रसादिज्ञानपंचकम् । सकृदेव तथा तत्र प्रतीतेरिति यो वदेत् ॥ १५॥ तस्य तत्स्मृतयः किन्न सह स्युरविशेषतः। तत्र तादृक्षसंवित्तेः कदाचित्कस्यचित्कचित् ॥ १६ ॥ सर्वस्य सर्वदात्वे तद्रसादिज्ञानपंचकम् । सहोपजायते नैव स्मृतिवत्तत्कमेक्षणात् ॥ १७ ॥
भुरीभुरी ( खस्ता ) कचौडी, पापड, महोवेका पान आदिके भक्षण, सूंघने, छने आदिमें हुये उस गन्ध आदिके पांचों ज्ञानोंका एक ही समयमें तिस प्रकार यहां होना प्रतीत हो रहा है। अतः उपयोगस्वरूप भी अनेक ज्ञान एक समयमें हो सकते हैं । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार जो कोई विद्वान् कहेगा, उस विद्वानके यहां उन पाचों ज्ञानोंकी स्मृतियां विशेषता रहित होनेसे एक साथ क्यों नहीं हो जाती हैं । अर्थात् जब कि अनुभव एक साथ पांच हो गये हैं, तो स्मृतियां भी एक साथ पांच हो जानी चाहिये । अनुभवके अनुसार स्मृतियां दुआ करती हैं। स्याद्वादसिद्धान्ती हम एक साथ कई ज्ञान हो जानेको माननेवाले तुमसे पूंछते हैं कि किसी काळमें किसी एक व्यक्तिको कहीं भी हो गयी तिस प्रकार एक समयमें हुये अनेक बानोंकी सम्वित्तिसे वहां कचौडी भक्षण आदिमें उस रसादिके पांच ज्ञानोंके एक साथ उपजनेकी व्यवस्था करते हो! अथवा सदा सम्पूर्ण व्यक्तियोंके सभी ऐसे स्थलोंपर हो रही तिस प्रकार सम्वित्तिओंसे पांचों ज्ञानोंका साथ हो जाना स्वीकार करते हो ! बताओ । प्रथमपक्ष अनुसार किसीको कहीं कभी तैसा जान कर लेनेसे तो यथार्थ व्यवस्था नहीं बनती है। मिथ्याज्ञान द्वारा भ्रमवश कहीं कभी किसी उद्धान्त पुरुषको प्रायः ऐसी सम्वित्तियां होजाया करती हैं, जो कि उत्तरकालमें बाधित हो जाती हैं। हां,