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तत्वार्थ लोक वार्तिके
जायगा । अर्थात - शून्यवादी भर्के ही अपने पक्षकी स्थापना नहीं करें, किन्तु तत्वोंके माननेवाले दूसरे वादियों के पक्षका निराकरण कर देनेसे उनके अभिमत शून्यवादको स्थापना परिशेषन्यायसे गम्यमान हो जाती है। यदि वह शून्यवादकी स्थापना गम्यमान भी नहीं होती तो शून्यपनेका ही व्याघात हो जाता, जो कि उसको इष्ट नहीं है ।
तर्हि प्रतिपक्षहीनमपि वा प्रयोजनार्थमर्थित्वेन तमभ्युपेयादित्यत्रापि प्रतिपक्षहीनमपि चेति वक्तव्यं, सर्वथा प्रतिपक्षहीनवादस्यासंभवादिति चेत् । क एवं व्याचष्टे सर्वप्रतिपक्षीनमिति ? परतः प्रतिज्ञामुपादित्समानस्तच्वबुभुत्साप्रकाशनेन स्वपक्षं वचनतोनवस्थापयस्वदर्शनं साधयेदिति व्याख्यानात् तत्र गम्यमानस्य स्वपक्षस्य भावात् स्वपक्षमनवस्थापयमिति भाष्यकारवचनस्यान्यथा विरोधात् ।
कहने पर किसी विद्वान्का कटाक्ष है कि तब तो प्रतिपक्षसे हीन होरहे को भी प्रयोजन साधने के लिये अभिलाषीपन करके उसको स्वीकार करलेवे, इस प्रकार यहां भी और प्रतिपक्षसे हीन भी है, ऐसा वार्त्तिक कहदेना चाहिये । अर्थात् – प्रतिपक्ष स्थापनाहीन इस सूत्र के परिशेष रहे अर्थके लिये प्रतिपक्षद्दीन भी यह उपसंख्यान करना चाहिये। क्योंकि सर्वथा प्रतिपक्षसे हीन हो रहे वादा असम्भव है । यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कौन व्याख्यान कर रहा है कि सभी प्रकार प्रतिपक्षों से हीन वितंडा होना चाहिये ? " सप्रतिपक्षस्थापनाहनो वितंडा ” इसका व्याख्यान यों किया गया है कि परवादीसे प्रतिज्ञाको ग्रहण करनेकी इच्छा रखता हुआ वैतंडिक तस्वको जानने की इच्छाका प्रकाश करके स्वकीय पक्षको वचनोंद्वारा व्यवस्थापित नहीं करता हुआ अपने सिद्धान्तदर्शनकी सिद्धि करा देवें । क्योंकि वहाँ शब्दोंद्वारा प्रतिपादन किये विना यों ही जाने जा रहे अपने पक्षकी सत्ता है । अन्यथा यानी इस प्रकार व्याख्यानको नहीं कर दूसरे प्रकारोंसे माननेपर तो अपने पक्षको व्यवस्थापित नहीं कराता हुआ इस भाष्यकारके वचनका विरोध हो जावेगा । अर्थात् उक्त सूत्रके भाष्यमें वात्स्यायन ऋषिने यों कहा है कि " यद्वै खलु तत्परप्रतिषेधलक्षणं वाक्यं स वैतंडिकस्य पक्षः, न त्वसौ साध्यं कश्चिदर्थ प्रतिज्ञाय स्थापतीति तस्माद् यथा न्यासमेवास्त्विति " दूसरे वाद के साध्यका निषेध करना स्वरूप वाक्य ही वैतंडिकका पक्ष है । वह वैतंडिक किसी साध्यविशेत्रकी प्रतिज्ञा कर स्थापन नहीं करता है । यानी वैतंडिक पण्डित अपने पक्षकी व्यवस्थाको नहीं करा रहा है । अपनी गांठकी प्रतिज्ञाको नहीं ग्रहण करता हुआ तत्त्व समझने की इच्छा का प्रकाश नहीं कर रहा है। केवल दूसरों के पक्ष का खण्डन कर देनेसे अर्थापत्तिद्वारा वैतंडिकके सिद्धान्त दर्शनका अन्य जन अनुमान लगा किया करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वितंडा सर्वथा प्रतिपक्षकी सिद्धिसे रीता नहीं है ।