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________________ तत्त्वार्यश्शोकवार्तिके दैविध्यपना या अनेकपना तो पर्यायोंकी अपेक्षासे ही है। दव्यरूपसे वे दोनों एक एक ही हैं तथा जो आकाशदव्य है वह लोकाकाश और अलोकाकाशरूप है, जो काळ द्रव्य है, वह अणुस्वरूप मुख्य काल, और समय आवलिका आदि व्यवहारस्वरूप है। इस प्रकार द्रव्यके भेद प्रमेदोंकर संग्रहकर व्यवहारनय द्वारा उनका विभाग कर दिया जाता है। मुक्त जीवोंका भी जघन्य अवगाहनावाले, मध्यम अवगाहनावाले, उत्कृष्ट अवगाहना वाले, या द्वीपसिद्ध, समुद्रसिद्ध, प्रत्येक बुद्ध, बोधितबुद्ध मादि धर्मोकरके संग्रह कर पुनः व्यवहार नयसे उनका भेदेन प्ररूपण किया जा सकता है । संसारीके त्रप्स, स्थावर, मनुष्य, स्त्री, देव, नारकी आदि स्वरूप करके संग्रह कर पुनः व्यवहार उपयोगी विभाग किया जा सकता है। इसी प्रकार पर्यायोमें समझना। जो क्रममावी पर्यायें संगृहीत गई हैं वह परिस्पंद आत्मक क्रियारूप और अपरिस्पंद भात्मक प्रक्रिया रूप होती हुई विशेष स्वरूप है और जो सहभावी पर्याय है वह नित्यगुणस्वरूप है और सदृश परिणाम प्रामक सामान्य रूप है। यहां भी क्रियारूप पर्यायोंकें भ्रमण, तिर्यग्गमन, ऊर्ध्व गमन, आदि भेद किये जा सकते हैं। अक्रियारूप पर्यायोंके ज्ञान, सुख, क्रोध, ध्यान, सामायिक, अध्ययन, आदि भेद हो सकते हैं। गुणोंके भी अनुजीवी, प्रतिजीवी, पर्यायशक्ति, सामान्यगुण, विशेष गुण, ये भेद किये जा सकते हैं । सामान्यका भी गोव, पशुत्व, जीवत्व, आदि रूप करके विमाग किया जा सकता है । इस प्रकार उत्तर उत्तर होनेवाला संग्रह और व्यवहार नयका प्रपंच ऋजुसूत्र नयसे पहिले पहिले और परसंग्रहसे उत्तर उत्तर अंशोंकी विवक्षा करनेपर समझ लेना चाहिये । क्योंकि जगदको सम्पूर्ण वस्तुएँ सामान्य और विशेषके साथ कथंचित् एक आरमक हो रही है । अतः नयको उपजानेवाले पुरुषका अभिप्राय सामान्यरूपसे जानकर विशेषोंको जानने के लिये प्रवृत्त हो जाता है । इस उक्त प्रकार कथन करनेपर व्यवहार नयको नैगमपने का प्रसंग नहीं भाता है। क्योंकि व्यवहार नय तो संग्रहद्वारा विषय किये जा चुके पदार्थका व्यवहार उपयोगी सर्वत्र बढिया विभाग करनेमें तत्पर हो रहा है और नेगमनय तो अत्यधिक गौण और प्रधान हो रहे दोनों प्रकारके धर्म धर्मियोंको विषय करता है अर्थात्-व्यवहार तो एक सद्भूत अंशके भी व्यवहार उपयोगी अंशोंको जानता है। किन्तु नैगम नय तो प्रधानभूत या गौणभूत हो रहे सत्, असत्, वंश, मंशियोंको जान लेता है। नेगमनयका क्षेत्र व्यवहारसे असंख्य गुणा बडा है। यः पुनः कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायविभागमभिपैति स व्यवहाराभासः, प्रमाणपापि. तत्वात् । तथाहि-न कल्पनारोपित एव द्रव्यपर्यायप्रविभागः स्वार्थक्रियाहेतुत्वादन्यथा तदनुपपत्तेः वंध्यापुत्रादिवत् । व्यवहारस्य मिथ्यात्वे तदानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता धन स्यात्, स्वमादिविनमानुकूल्येनापि तेषां प्रमाणत्वमसंगात् । तदुक्तं । “व्यवहारानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता, नान्यथा पाध्यमानानां, तेषां च तत्वसंगतः॥" इति ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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