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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः और भी बौद्धमत अनुयायी धर्मकीर्तिने जो यों कहा था कि असाधनाङ्ग वचनका अर्थ यह है कि साधन यानी सिद्धि उसका अङ्ग यानी कारण तीन रूपवाला ज्ञापक हेतु है। उस त्रिरूपलिंगका कथन नहीं करना वादीका निग्रहस्थान है । अर्थात्-पक्षमस्व, सपक्ष सत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति ये तीन स्वरूप हेतुके माने गये हैं। अनुमानके प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, ये तीन अंग हैं। वादी यदि स्वपक्षसिद्धिके लिये तीन रूपबाळे हेतुका कथन नहीं करेगा तो उसका निप्रहस्थान हो जायगा। तथा "असाधनांग वचनका" दूसरा अर्थ यह है कि साधन यानी तीन रूपबाला लिंग उसका अंग समर्थन है। व्यतिरेकनिश्चयका निरूपण करना होनेसे उस हेतुका विपक्षमें वाधक प्रमाणके वचनको समर्थन कहते हैं। उस समर्थनका कथन नहीं करना वादीका निग्रहस्थान है। भावार्थ-"हेतोः साध्येन व्याप्तिं प्रसाध्य पक्षे सत्त्वप्रदर्शनं समर्थनं " साध्यके अभाव होनेपर हेतुका अमाव दिखलाया जाना व्यतिरेक है । हेतुकी साध्यके साथ व्याप्तिको साधकर धीमें उस हेतुका अस्तित्व साध देना समर्थन है । यह अन्वय मुखसे समर्थन हुआ और व्यतिरेकके निश्चयका निरूपण करनेसे विपक्षमें बाधक प्रमाणका कथन करना भी व्यतिरेक मुखसे समर्थन है । यदि वादी इस व्यतिरेक मुखसे किये गये समर्थनका निरूपण नहीं करेगा तो वादीका निग्रहस्थान हो जायगा । इस प्रकार बौद्ध आचार्य धर्मकीर्तिके कह चुकनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि वह कथन तो नैयायिकको भी समानरूपसे लागू होगा । इसी बातको वार्तिक द्वारा श्री विद्यानन्द बाचार्य स्पष्ट कहते हैं। स्वेष्टार्थसिद्धरंगस्य त्र्यंशहेतोरभाषणं । तस्यासमर्थनं चापि वादिनो निग्रहो यथा ॥ ७२॥ पंचावयवलिंगस्याभाषणं न तथैव किम् । तस्यासमर्थनं चापि सर्वथाप्यविशेषतः॥७३॥ अपने इष्ट अर्थकी सिद्धिके अंग हो रहे तीन अंशवाले हेतुका अकथन करना तथा उस तीन अंशवाळे हेतुका समर्थन नहीं करना जिस प्रकार वादीका निग्रहस्थान (पराजय ) है, उसी प्रकार हम नैयायिकोंके माने हुये पांच अवयववाळे हेतुका अभाषण और उस पांच अवयववाले हेतुका समर्थन नहीं करना भी क्यों नहीं वादीका निग्रहस्थान होगा । सभी प्रकारोंसे बौद्धोंकी योजना से नैयायिकोंके योजनामें कोई विशेषता नहीं है । भावार्थ-बौद्ध यदि तीन अंगवाळे हेतुका कथन नहीं करना वादीका निग्रहस्थान बतायेंगे तो नैयायिक पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, बबाधित विषयत्व, असत्प्रतिपक्षत्व इन पांच अवयवोंसे सहित हो रहे हेतुका नहीं कथन करना या समर्थन नहीं करना निग्रहस्थान बतादेंगे । असिद्ध, विरुद्ध, व्यभिचारी, बाधित, सत्प्रतिपक्ष, इन पांच
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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