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________________ तत्वार्थकोकवार्तिके साध लेना । तथा शब्दनयके आश्रयसे प्रतिषेध कल्पना करना, क्योंकि काल, कारक आदिके मेह से भिन हो रहे अर्थको प्रस्थ आदिपना है । अन्यथा यानी दूसरे ढंगोंसे प्रस्थ आदिकी व्यवस्था करनेपर अतिप्रसंग हो जायगा । कोरे काठ या पांचसेरीके पात्रको भी प्रस्थ कह लेनेके लिये कोई रोक नहीं सकेगा । इस कारण शब्दनयसे नास्तित्व भंगको सिद्ध करो। तथा छटे समभिरूढनय का आश्रय नेसे प्रतिषेधकी कल्पना करो । क्योंकि प्रस्थ, पल्य, आदि पर्यायवाचक शब्दोंके भेद हो जाने करके मिन मिन हो रहे अर्थको प्रस्थ आदिपना है। अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा। अर्थात्-पूर्व नयोंके व्यापक अर्थोमें समभिरूढनय वर्त जायगा तथा इसी प्रकार नैगम नयकी अपेक्षा विधि की कल्पना करते हुये एवंभूतनयका आश्रय करनेसे निषेध की कल्पना करना । क्योंकि प्रस्थ आदि की क्रिया करनेमें परिणत हो रहे ही अर्थको प्रस्थ आदिपना है। अन्यथा माननेपर अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात्-जिस समय नापनेके लिये पात्रमें गेंहू, धान, भले प्रकार स्थित हो रहे हैं, उसी समयकी पात्र अवस्थाको प्रस्थ कहना चाहिये । खाली रखे हुये पात्रको प्रस्थ नहीं मानना चाहिये । अन्यथा गडबड फैल जायगी। जगत्में चाहे जिस पदार्थको चाहे जिस शद्बकरके कह दिया जावेगा। विचार करने पर प्रतीत होता है कि जन्मभरमें एक बार भी पढा देनेसे मनुष्य पाठक कहा जा सकता है । एक चेतना गुणके होनेसे सम्पूर्ण गुणोंका पिण्ड आत्मा चेतन कह दिया जाता है । एक दिन या एक घण्टे व्यभिचार या चोरी करनेसे जन्मभरके लिये व्यभिचारी या चोर वह गिना जाता है। किन्तु एवंभूतनयकी मनीषा न्यारी है । अतः एवंभूतकी परिणतिको मूलकारण समझो । उसको छोड देने पर समी शाखायें तितर बितर हो जाती हैं। पूर्व नयोंके व्यापक विषयको एवंभूत नहीं पकडती है । इसकी अपेक्षा परवस्तुओंको चुराता हुआ ऐडे पर पकडा गया चोर चोट्टा है। न्यायालयमें खडा हुआ वही मनुष्य चोर नहीं है। इसी प्रकार व्यभिचारीकी व्यवस्था समझो । अतः छह प्रकारोंसे दो मूलभंगोंकी बनाना । इसी प्रकार तीसरा भंग क्रमसे अर्पित किये गये दोनों नयोंकी अर्पणासे कथंचित् उभय बना लेना तथा एक साथ कहनेके लिये अर्पित किये दोनों नयके आश्रय कचित् अवक्तव्य यों चौथा भंग बनाना। तथा जिनके उत्तर कोटिमें अवक्तव्य पडा हुआ है, ऐसे बचे हुये अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अस्तिनास्ति अवक्तव्य, ये तीन भंग भी यथायोग्य विवाक्षाओंका योग मिलाने पर उदाहरण करने योग्य हैं । इस प्रकार ये छह सप्तमंगियां समझा दी गयी हैं । तथा संग्रहाश्रयतो विधिकल्पना स्यात् सदेव सर्वमसतोऽप्रतीतेः खरश्रृंगवदिति तत् प्रतिषेधकल्पना व्यवहाराश्रयणान्न स्यात्, सर्व सदेव द्रष्यत्वादिनोपलब्धेव्यादिरहितस्य सन्मात्रस्यानुपलब्धेश्चेति ऋजुसूत्राश्रयणात् प्रतिषेधकल्पना न सर्व स्यात् । सदेव वर्तमानापादन्येन रूपेणानुपलब्धेरन्यथा अनायनंतसत्तोपलंभप्रसंगादिति शब्दाश्रयणा
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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