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तत्वायचिन्तामणिः
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नयकी अपेक्षा प्रस्थ आदि की विधिको करनेवाला पहिला भंग बना लेना चाहिये। शेष छह नयोंकी अपेक्षा दूसरा भंग बनायो ।
तत्पतिसंग्रहाश्रयणात्मविषेषकल्पना न प्रस्थादिसंकल्पमात्र प्रस्थादि सन्मात्रस्य तथा प्रतीतेः असतः प्रतीतिविरोधादिति व्यवहाराश्रयणात् द्रव्यस्य तथोपलब्धेरद्रव्यस्यासतः सतो वा प्रत्येतुमशक्तेः पर्यायस्य तदात्मकत्वादन्यथा द्रव्यांसरत्वप्रसंगादिति ऋजुसूत्राश्रयणात्सर्यायपात्रस्य प्रस्थादित्वे नोपलब्धेः, अन्यथा प्रतीत्यनुपपत्तेरिति शद्धाश्रयणात् कालादिभेदाद्भिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वादन्यथातिप्रसंगात् । इति समभिरूढाश्रयणात् पर्यायभेदेन भिन्नस्यार्थस्य प्रस्थादित्वात् अन्यथातिप्रसंगादिति, एवंभूताश्रयणात् प्रस्थादिक्रियापरिणतस्यैवार्थस्य प्रस्थादित्वादन्यथातिप्रसंगादिति । तथा स्यादुभयं क्रमार्पितोभयनयार्पणात् स्यादवक्तव्यं, सहार्पितोभयनयाश्रयणात् अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भंगा यथायोगमुदाहायर्या इत्येताः षट्सप्तभंग्यः ।
उस संकल्पित प्रस्थ आदिके प्रति संग्रहनयके आश्रयसे प्रतिषेधकी कल्पना करना। क्योंकि केवळ प्रस्थ आदिका मानसिक संकल्प ही तो प्रस्थ, प्रतिमा, आदिक स्वरूप पदार्थ नहीं है। संकल्प तो असत् पदार्थो का भी हो जाता है । परन्तु तिस प्रकार प्रस्थ आदिके सद्भावपने करके तो केवल विद्यमान हो रहे पदार्थोकी ही प्रतीति हो सकती है। असत् पदार्थकी प्रतीति होनेका विरोध है । जब कि वस्तुभूत प्रस्थ आदिक नहीं है, तो वे संग्रहनयकी अपेक्षा यों नास्तित्व धर्मद्वारा प्रतिषिद्ध कर दिये जाते हैं । व्यवहारनयके आश्रयसे भी प्रतिषेध कल्पना कर लेना । क्योंकि सद्भावके होनेपर उसके व्याप्य हो रहे द्रव्यकी तिस प्रकार प्रस्थ, इन्द्रप्रतिमा आदिपने करके उपलब्धि हो पाती है । नैगमनयद्वारा केवल संकल्पित कर लिए गये असत् पदार्थकी अथवा संग्रहनयद्वारा सद्भूत जान लिये गये भी पदार्थको व्यवहारनयद्वारा तबतक प्रतीति नहीं की जा सकती है, जबतक कि वह द्रव्यपने करके या सामान्य पर्यायपने करके ब्यवहृत होता हुआ विभक्त नहीं किया गया होय । प्रकरणमें प्रस्थरूपपर्यायको उस प्रस्थ आत्मकपना है । यदि ऐसा नहीं मानकर दूसरे प्रकारोंसे मानोगे तो प्रस्थ, घट, पट, आदिको मिन भिन्न द्रव्य हो जानेका प्रसंग होगा । भावार्थ-व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय द्रव्य या पर्यायकी प्रस्थ आदि रूपकरके विधि कर सकता है। कोरे संकल्पको प्रस्थ नहीं कहना चाहता है। अतः व्यवहारनयसे भी प्रतिषेध कल्पनाकर दूसरे भंगको पुष्ट करो । इसी प्रकार ऋजुसूत्रनयके आश्रयसे प्रतिषेध कल्पना करो । ऋजुसूत्रनयके विचार अनुसार पात्ररूपसे बनाई जा चुकी केवल प्रस्थ, प्रतिमा, आदि पर्यायोंकी प्रस्थ आदिपने करके प्रतीति की जाती है । दूसरे प्रकारोंसे अर्थात्-संकल्प या सन्मात्र अथवा केवळ द्रव्य कह देनेसे ही प्रस्थ पर्यायकी प्रतीति होना नहीं बन पाता है । इस कारण ऋजुसूत्रनयसे भी नास्तित्व भंगको