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तस्वार्थ श्लोकवार्तिके
नरक गति नामक नामकर्म और मरकायुः इन दो बहिरंग कारणोंके उदयसे आस्माकी नरकभव पर्याय होती है । इस प्रकार उस भवको आत्माका पर्यायपना होते हुये भी बहिरंग कारणपना विरुद्ध नहीं है । द्रव्योंकी परिणतिओंमें उनके कोई तदात्मक परिणाम तो बहिरंगकारण बन जाते हैं, और दूरवर्ती, द्रव्यान्तरवर्ती भी कोई कोई पदार्य अन्तरंगकारणपनेके पारितोषिकको लूटते जाते हैं। स्त्री या धन अथवा प्रियपुत्र आदिके सर्वथा अधीन हो रहे पुरुषकी प्रवृत्तिओंका अन्तरंगकारण स्त्री धन आदिक हैं और उस पुरुषकी रति, मोह, लोभ आदि निज आत्मपरिणतियां बहिरंगकारण हैं । किसी कार्यमें तो वे कैसी भी यानी उदासीन कारण भी नहीं हैं, प्रेरकपना तो दूर रहा । - कथमत्रावधारणं, देवनारकाणामेव भवप्रत्ययोऽवधिरिति वा भवप्रत्यय एव देवनारकाणामिति ! उभयथाप्यदोष इत्याह ।
यहां किसीकी शंका है कि सभी वाक्य अवधारणसहित होते हैं । चाहे एवकार कण्ठोक्त कहा जाय अथवा नहीं कहा जाय । तदनुसार इस सूत्रमें क्या उद्देश्यदलके साथ एवकार लगाकर अवधारण किया गया है ? अथवा विधेयदळके साथ एव लगाकर नियम किया गया है ! बताओ। अर्थात्-देव और नारकी जीवोंके ही भवप्रत्यय अवधि होती है, इस प्रकार अवधारण अभीष्ट है ? अथवा भवप्रत्यय अवधि ही देव और नारकियोंके होती है ! यों अभिमत है। इस प्रकार जिज्ञासा होनेपर आचार्य कहते हैं कि दोनों भी प्रकारोंसे अवधारण करनेपर कोई दोष नहीं आता है । हमें उद्देश्य और विधेय दोनोंमें एवकार लगाकर अवधारण करना अभीष्ट है। इसी बातको आचार्य महाराज दो कारिकाओंद्वारा स्पष्ट कर देते हैं।
येऽग्रतोऽत्र प्रवक्ष्यन्ते प्राणिनो देवनारकाः। तेषामेवायमित्यर्थान्नान्येषां भवकारणः ॥३॥
इस तत्वार्थसूत्र ग्रंथमें आगे चौथे, तीसरे अध्याय करके जो प्राणी देव और नारकी बढिया ढंगसे कहे जायेंगे, उन प्राणियोंके ही यह भवको कारण मानकर उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान उत्पन्न होता है । अन्य मनुष्य या तिथंच प्राणियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान नहीं होता है। ऐसा उत्तरदलमें अबधारणको अन्वितकर अर्थ करदेनेसे देव नारकियोंके अतिरिक्त अन्य प्राणियोंमें भव प्रत्यय अवधिज्ञानका निराकरण कर दिया जाता है । यद्यपि तीर्थंकरोंके भी जन्म लेते ही भवप्रत्यय अवधि हो जाती है । फिर भी सूत्रअनुसार सामान्यरूपसे चार गतियोंके प्राणियोंकी अपेक्षासे अव. विज्ञानका नियम इस प्रकार करदेनेपर कोई दोष नहीं आता है । . भवप्रत्यय एवेतिनियमान गुणोद्भवः ।
संयमादिगुणाभावाद्देवनारकदेहिनाम् ॥ ४ ॥