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तत्वार्थचिन्तामणिः
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सकता है " यह नियम करना है। यानी यह धर्मी मेरे मन्तव्य अनुसार इस प्रकार के धर्मसे ही युक्त हो रहा है । अथवा तुम्हारे मन्तव्य अनुसार इस प्रकार धर्मको नहीं धारता है । वह प्रसिद्ध हो रहा यह पक्ष, प्रतिपक्षोंका उक्ति प्रत्युक्तिरूप कथन करना तो वितंडामें नहीं है । गौतमसूत्र में वितंडाका लक्षण यों लिखा है कि वह जल्पका एक देश यदि प्रतिपक्षकी स्थापनासे हीन होय तो वितंडा हो जाता है । इसका अभिप्राय यों है कि तिस प्रकार उपर्युक्त कथन अनुसार जल्प यदि प्रतिपक्षकी स्थापनाके हीनपने करके विशेष प्राप्त करदिया जाय तो वितंडापनको प्राप्त हो जाता है । वितंडवाद प्रयोजनको धारनेवाले वादीका स्वकीयपक्ष ही साधनवादीके पक्षकी अपेक्षासे " हस्तिप्रतिइस्ति "" न्याय करके प्रतिपक्ष समझ लिया जाता है । अर्थात् — उरली पार परली पार कोई नियत तट नहीं हैं । इस ओर लडनेके लिये खडा हुआ हस्ती ही दूसरे हस्तीकी अपेक्षा प्रतिहस्ती मानकिया जाता है । इसी प्रकार शद्वके अनित्यत्वको सिद्ध करनेवाले नैयायिकके पक्षकी अपेक्षा जो प्रतिपक्ष शद्वका नित्यपना पडेगा वही नैयायिकके पक्षका खण्डन करनेवाले वैतंडिकका स्वकीय (निजी) पक्ष है । वह वैतंडिक विद्वान् अपने पक्षको पुष्ट करनेके लिये किसी हेतु या युक्तिको नहीं कहता है । केवल दूसरों द्वारा साधे गये पक्षके निराकरण करनेके लिये ही प्रवृत्ति करता है । इस प्रकार वितंडा के लक्षणसूत्रका व्याख्यान किया गया है ।
ननु वैतंडिकस्य प्रतिपक्षाभिधानः स्वपक्षोस्त्येवान्यथा प्रतिपक्षहीन इति सूत्रकारो ब्रूयात् न तु प्रतिपक्षस्थापनाहीन इति । न हि राजहीनो देश इति च कश्चिद्राज पुरुषहीन इति वक्ति तथा अभिप्रेतार्थाप्रतिपत्तेरिति केचित् । ते पि न समीचीनवाचः, प्रतिपक्ष इत्यनेन विधिरूपेण प्रतिपक्षहीनस्यार्थस्य विवक्षितत्वात् । यस्य हि स्थापना क्रियते स विधिरूपः प्रतिपक्षो न पुनर्यस्य परपक्षनिराकरणसामर्थ्योन्नतिः सोत्र मुख्यविधिरूपतया व्यवतिष्ठते तस्य गुणभावेन व्यवस्थितेः ।
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यहां कोई विद्वान् यों अवधारण कर रहे हैं कि वितंडा नामक शास्त्रार्थको करनेवाले पण्डितका भी प्रतिपक्ष है नाम जिसका ऐसा गांठ ( निजी ) का पक्ष है ही । अन्यथा न्यायसूत्रको बनानेवाले गौतमऋषि वितंडाके लक्षण में प्रतिपक्षसे हीन ऐसा ही कह देते, किन्तु प्रतिपक्षकी स्थापना करनेसे रहित ऐसा नहीं कहते । राजासे हीन हो रहा देश है, ऐसा अभिप्राय होनेपर राजाके पुरुषोंसे हीन देश हो रहा है, यों तो कोई नहीं कह देता है। क्योंकि तैसा कहनेपर अभिप्रायको प्राप्त हो रहे अर्थकी प्रतिपत्ति नहीं हो पाती है । भावार्थ — जो प्रतिवादीके प्रतिकूल पक्ष है, वही dish वादीका स्वपक्ष है । सूत्रकार गौतमने तभी तो प्रतिपक्षकी स्थापना करनेसे रहित वैतंडिकको बताया है । राजा अपने अधीन सभी नगरों या ग्रामोंमें एक एकमें नहीं बैठा रहता है । हां, राजा के अंग हो रहे पुरुष वहां राजसत्ताको जमाये हुये हैं । वैतंडिकको प्रतिपक्षसे रहित नहीं कहा है। इस
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