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________________ ३७४ तत्वार्थकोकवार्तिके बौद्धोंका मन्तव्य प्रमाणोंसे व्यवस्थित नहीं हो सका है । स्वयं बौद्धोंने तत्त्व हेतुसे शद्रका क्षणिकपना सिद्ध करते समय " संश्व शङ्कः " ऐसा पक्षमें हेतुधर्मका उपसंहार कहा है । जो कि उपनय वाक्य विना कहे भी प्रकरण द्वारा जामा जा सकता था । कहीं निगमन भी कहा है। जो कि प्रतिज्ञावाक्य की उपयोगिताको साथ देता है, इस बातको हम विशदरूपसे पूर्व ग्रन्थमें कह चुके हैं। यहां हमको केवल इतना ही निर्णय करना है कि अपने बौद्धदर्शनकी कोरी श्रद्धामात्रसे बौद्धों करके वादीके उपर प्रतिज्ञाकथनका निग्रहस्थानपने करके उत्थापन करनेपर भी पुनः प्रतिज्ञाविरोध, व्यभिचार, विरुद्ध, आदि दोषोंका उठाया जाना असमय ( बेमौके ) का नहीं मानना चाहिये । विचारने पर यही प्रतीत होता है किं अनेक साधनोंके वचन समान अमेक बूषणोंके कथन करने का भी कोई विशेष नहीं है । अर्थात्-जैसे प्रतिपानको समझाने के अनेक हेतुओं द्वारा साथ्यको साधा जाता है, उसी प्रकार दूसरे के पक्षको अधिक निर्बल बनानेके लिये अनेक दोषोंका प्रयोग भी किया जा सकता है। यहां साधन और दूषण देनेमें अनेक सहारोंके लेनेकी अपेक्षा सभी प्रकारोंसे कोई विशेषता नहीं है । इस बातका हमने पहिले अन्यत्र ग्रन्थ में बहुत विस्तृत विचार कर दिया है । संप्रति प्रतिज्ञा संन्यासं विचारयितुमुपक्रममाह । अब नैयानिकों के चौथे प्रतिज्ञासन्न्यास नामक निग्रहस्थानका विचार करनेके लिये श्री विद्यानन्द आचार्य उपायपूर्वक प्रक्रमको वार्तिकद्वारा कहते हैं । प्रतिज्ञार्थापनयनं पक्षस्य प्रतिषेधने । न प्रतिज्ञानसंन्यासः प्रतिज्ञाहानितः पृथक् ॥ १७८ ॥ arth पक्षका दूसरे प्रतिवादीद्वारा प्रतिषेध किये जानेपर यदि वादी उसके परिहारकी इच्छा से अपने प्रतिज्ञा किये गये अर्थका निन्हव ( छिपाना ) करता है, वह वादीका " प्रतिज्ञासंन्यास " नामक निग्रहस्थान है । आचार्य कहते हैं कि यह चौथा प्रतिज्ञासन्यास तो पहिले "प्रतिज्ञाहानि" निग्रहस्थानने पृथक् नहीं मानना चाहिये । यों निग्रहस्थानों की संख्या बढाकर व्यर्थमें नैयायिकों का घटाटोप बांधना भेदकतावच्छेदकावच्छिन्न और प्रभेदकतावच्छेदकावच्छिन्न विषयमें स्वकीय अज्ञानता को दिखलाना है । ननु “ पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञानार्थापनयनं प्रतिज्ञासंन्यासः " इति सूत्रकारवचनात् यः प्रतिज्ञातमर्थे पक्षप्रतिषेधे कृते परित्यज्यति स प्रतिज्ञासंन्यासो वेदितव्यः उदाहरणं पूर्ववत् । सामान्येनैकांविकत्वादेतोः कृते ब्रूयादेक एव महान्नित्य शब्द इति । एतत्साधनस्य सामपरिच्छेदाद्विप्रतिपत्तितो निग्रहस्थानमित्युद्योतकरवचनाश्च प्रतिज्ञासंन्यासस्तस्य प्रतिज्ञाहार्भेद एवेति मन्यमानं प्रत्याह ।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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