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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः नैयायिक अपने पक्षका अवधारण करते हैं कि पक्षका प्रतिषेध करनेपर प्रतिज्ञात अर्थका वादी द्वारा हटाया जाना बादीका प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थान है। इस प्रकार न्यायदर्शनके सूत्रोंको बनानेवाले गौतमऋषिने " न्यायदर्शन " के पांचवे अध्यायके पांचवे सूत्र द्वारा कहा है । इसका अर्थ यों है कि जो प्रतिवादी द्वारा पक्षका निषेध करनेपर उस पक्षको परित्याग कर देता है, वह प्रतिज्ञासंन्यास नामक निग्रहस्थानसे सहित समझलेमा चाहिये । इसका उदाहरण पूर्वके समान ही है । जैसे कि शब्द अनित्य है, ऐंद्रियिक होनेसे घटके समान, यों वादीके कह चुकने पश्चात् प्रतिवादी द्वारा नित्य सामान्य करके वादीके ऐन्द्रियिकत्व हेतुका व्यभिचारीपना कर देनेपर पुनः वादी अपने पक्षका परित्याग कर यों कह देवेगा कि अच्छी बात है कि मीमांसकोंके मन्तव्य समान एक ही महान्, व्यापक, शब्द नित्य हो जाओ। यहां हेतुकी सामार्थ्यका ज्ञान नहीं होनेसे और निग्रहस्थानको प्रयोजक विविधप्रतिपत्ति या विरुद्धप्रतिपत्ति हो जानेसे यह चौथा निग्रहस्थान प्रतिज्ञासंन्यास है। उद्योतकर पण्डितका वचन भी इसी प्रकार है। उस चौथे निग्रहस्थानका प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थानसे भेद ही है। इस प्रकार मान रहे नैयायिकके प्रति बाचार्य महाराज समाधान करते हुये कहते हैं। एक एव महान्नित्यः शद्ध इत्यपनीयते । प्रतिज्ञार्थः किलानेन पूर्ववत्पक्षदूषणे ॥ १७९ ॥ हेतोरेंद्रियकत्वस्य व्यभिचारप्रदर्शनात् । तथा चापनयो हानिः संधाया इति नार्थभित् ॥ १८० ॥ पूर्व उदाहरणके समान वादीके ऐन्द्रियिकत्व हेतुका प्रतिवादी द्वारा व्यभिचार प्रदर्शन कसनेसे वादीके पक्षका दूषण हो जानेपर इस बादी करके एक ही महान् शब्द नित्व हो जाओ, इस प्रकार अपना पूर्व प्रतिज्ञात अर्थ दूर कर दिया गया है। यह सम्भाव्य है और तिस प्रकार होनेपर प्रतिज्ञात अर्थका अपनय यानी हानि ही हुई इस कारण प्रतिज्ञाकी हानि और प्रतिज्ञाके संन्यास इनमें कोई अर्थका भेद नहीं है। अमिप्राय एक ही है। प्रतिज्ञाहानिरेवेतैः प्रकारैर्यदि कथ्यते । प्रकारांतरतोपीयं तदा किं न प्रकथ्यते ॥ १८१॥ तनिमित्तप्रकाराणां नियमाभावतः क नु । यथोक्ता नियतिस्तेषा नाप्तोपझं वचस्ततः ॥ १८२ ॥
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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