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तत्वार्थचिन्तामणिः
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हो जाना चाहिये । यानी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उन संपूर्ण पर्यायोंको विषय करनेवाले हो जायंगे । अन्यथा उन ज्ञानोंको अवस्तुके विषय कर लेनेपनका प्रसंग आवेगा । अर्थात् - द्रव्यकी तदात्मक हो रही बहुतसी पर्यायें जब ज्ञानोंसे छूट जायंगी तो ज्ञान ठीक ठीक वस्तुको विषय करनेवाले नहीं होकर किसी थोडी पर्यायवाली वस्तु ( वस्तुतः अवस्तु ) को विषय करते रहेंगे। जो कतिपय अंगों से रहित देवदत्तको केवल हाथपगवाला ही देख रहा है, सच पूछो तो वह देवदत्तको ही नहीं देख रहा है । पीलापन, हरायपन, खट्टामीठापन, उष्णता, गंध आदि पर्यायोंसे रहित आमको जाननेवाला क्या आम्रफलका ज्ञाता कहा जा रहा है ? कभी नहीं । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारका कुचोद्य उठाना अच्छा नहीं है । क्योंकि तिस प्रकार अनन्तपर्यायों अथवा सम्पूर्ण पर्यायोंके जाननेकी योग्यता मति श्रुत दो ज्ञानोंमें नहीं है । केवल जगत् में सद्भाव हो जानेसे ही कोई वस्तुज्ञानके विषयपनको प्राप्त नहीं हो जाती है । यदि जगत् में पदार्थ विद्यमान हैं, एतावता ही जीव ज्ञानमें विषय हो जाय तब तो सम्पूर्ण पदार्थों का सदा ही सम्पूर्ण जीवोंके ज्ञानमें विषय हो जानेका प्रसंग आवेगा । आम्रफल, कचौडी, मोदक, आदिमें असंख्यगुण अनेक पर्यायस्वरूप परिनाम हो रहे हैं । किन्तु पांच इन्द्रियोंद्वारा हमको उनके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्दों या आकृति का तो ज्ञान हो जाता है। शेष परिणाम का ज्ञान नहीं हो पाता है । तिस प्रकार के पुण्य विना जगत् अनन्त पदार्थ विद्यमान हो रहे भी प्राप्त नहीं होते हैं। जीव अपने घरमें रक्खे हुये पदार्थोंका भी भोग विना पुण्यके नहीं कर सकते है । खेत, या बागोंका सेवक उन धान्य फलोंका आनन्द नहीं ले पाता है । प्रभु ही भोगता है, जरीगोटा या सुवर्ण रत्नोंके भूषण' बनानेवाले कारीगर उनके परिभोग से वंचित रहते हैं। मेवा, सेत्र अनार दूध आदिको बेचनेवाले या पैदा करनेवाले.. ग्रामीणजन लोभवश उनका भोग नहीं कर पाते हैं । देशान्तरवर्ती पुण्यवान् उनको - मोगते... हैं | यहांतक कि बहुभाग पदार्थोंका तो साधारण जीवोंको ज्ञान भी नहीं हो पाता है । ज्ञप्तिके कारणोंको योग्यता जैसी मिलेगी, उतने ही पदार्थोंका ज्ञान हो सकेगा, अधिकका नहीं। हां, एक अंशका भी ज्ञान हो जानेसे तदात्मक, वस्तुका ज्ञान कहा जा सकता है। एक रस या रूपके द्वारा भी हुआ आम्रका ज्ञान वस्तुका ज्ञान कहा जा सकता है । वस्तुके सम्पूर्ण अंशों पर तो सर्वज्ञका ही अधिकार है ।
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किं तर्हि वस्तुनः परिच्छित्तौ कारणमित्याह ।
तो फिर आचार्य महाराज तुम ही बतलाओ कि वस्तुकी यथार्थ ज्ञप्ति करनेमें क्या कारण है ! इस प्रकार सरलतापूर्वक जिज्ञासा होनेपर श्रीविद्यानंद आचार्य समाधान कहते हैं ।
ज्ञानस्यार्थपरिच्छित्तौ कारणं नान्यदीक्ष्यते ।
योग्यतायास्तदुत्पत्तिः सारूप्यादिषु सत्स्वपि ॥ २१ ॥