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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
- बौद्ध विद्वान् अपने मतका अवधारण करते हैं कि परमार्थभूत पदार्थकी व्यवस्था तो किसी भी अनिर्वचनीय कारण द्वारा अविद्याका प्रकृष्टक्षय हो जानेसे स्वतः ही हो जाती है। किन्तु फिर विकल्पस्वरूप मिथ्या श्रुतज्ञानसे वस्तुमूत अर्थकी व्यवस्था नहीं हो पाती है । वही हम बौद्धोंके यहां ग्रन्थों में कहा गया है कि शास्त्रोंमें मिन भिन्न प्रक्रिया द्वारा अविद्या ही कही जा रही है । क्योंकि शब्द विचारे वस्तुभूत अर्थको नहीं छूते हैं। स्वयं सम्यग्ज्ञानरूप विद्या तो आगमस्वरूप निर्विषय विकल्पवानोंके नहीं गोचर हो रही सन्ती स्वयं यों ही वर्त जाती है । जैनोंके यहां भी तत्त्वको निर्विकल्पक माना है। अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका वह कहना अयुक्त है। क्योंकि आप दूसरे बौद्धोंके यहां इष्ट किये गये तत्त्वोंका प्रयक्षज्ञान द्वारा गोचर हो जाना नहीं बन सकता है। प्रत्युत उन बौद्धोंके इष्ट क्षणिक विज्ञान आदि तत्त्वोंसे विपरीत हो रहे अनेकान्तात्मक वस्तुका ही सर्वदा प्रयक्ष द्वारा दूसरे विद्वानोंको भी प्रतिभास हो रहा है । अतः प्रत्यक्षकी प्रवृत्ति नहीं होनेपर अपने इस अभीष्ट तत्वको लिंगद्वारा ज्ञप्ति कराना तुमको अवश्य अंगीकर्तव्य होगा। किन्तु उस इष्ट तत्त्वको साधनेमें तुम्हारे पास कोई वस्तुभूत ज्ञापक लिंग नहीं है । क्योंकि उस हेतुकी अपने साध्यके साथ अविनामावीपन करके प्रत्यक्षप्रमाणसे ही तो प्रतिपत्ति नहीं की जा सकती है। क्योंकि व्याप्तिज्ञान तो विचारक है उसको आप प्रमाण नहीं मानते हैं । जो जो धूमवान् प्रदेश है वे वे अग्निमान् हैं, इतने विचारोंको विचारा अविचारक प्रत्यक्ष कैसे भी नहीं कर सकता है। यदि साध्यके साथ अविनामावीपनकी प्रतिपत्ति दूसरे अनुमानसे की जायगी तो उस अनुमानके उदयमें मी व्याप्ति की आवश्यकता पडेगी । फिर भी व्याप्ति जाननेके लिये अन्य अन्य अनुमानोंको शरण पकडनेसे अनवस्था दोष आ जानेका प्रसंग होता है, तुम्हारे बौद्धोंके इष्टतत्त्वोंकी व्यवस्था प्रवचन (आगम ) से भी नहीं हो सकती है। क्योंकि उस आपके आगमको उन इष्ट पदार्थोके विषय करनेपनका अयोग है । इस प्रकार तुम्हारे उस इष्टतस्त्रका ज्ञान कैसे भी नहीं हो सकता है । विचारे तत्वोंका स्वतः प्रकाश होना तो असम्भव है। अन्यथा यों तो सभी जीवोंको स्वतः वास्तविक तत्वोंका ज्ञान हो जावेगा । फिर शास्त्राभ्यास, अध्ययन, अध्यापन, योगाभ्यास, व्यर्थ पडेगा। जगत्के कोई भी नवीन कार्य स्वतः नहीं हो जाते हैं । ऐसी दशामें आपके परमार्थ तस्वकी व्यवस्था असम्भव हो गयी । तिस ही प्रकार प्रन्योंमें कहा है कि जिस बौद्धोंके माने हुये तत्त्वमें प्रत्यक्षज्ञान चलता नहीं है, और जो तत्व ज्ञापक हेतुओं करके भी जानने योग्य नहीं हैं, तथा बौद्धोंने स्वयं उसके जानने के लिये कोई ज्ञापक हेतु अभीष्ट किया भी नहीं है, क्योंकि बौद्धोंके यहां हेतु केवल समारोपका व्यवच्छेद कर देते हैं, वस्तुभूत अज्ञात - तत्त्वका ज्ञापन नहीं करते हैं, तथा बौद्धोंने उन अपने इष्ट विषयोंमें वाचक शब्दोंका वाच्यवाचक संबंध नहीं माना है। यानी आगमद्वारा भी इष्ट तत्त्व नहीं जाना जाता है, इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, इन प्रमाणोंका गोचर नहीं होनेसें अब तुम्हारे उन इष्ट तत्वोंकी क्या गति होगी ! अतीन्द्रिय अर्कका