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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः ખર बौद्ध जन जब प्रतिज्ञावाक्यका अनुमानमें प्रयोग करना योग्य नहीं मानते हैं, उनके यहां प्रतिज्ञाहानि दोष नहीं सम्भवता है। हां, जिनके यहां अनुमितिके कथन करनेमें प्रतिज्ञा वाक्य प्रयोग करने योग्य माना गया है, उनके यहां उस प्रतिज्ञाकी हानि भी निग्रहस्थान हो जाओ । किन्तु प्रतिवादी अपने पक्षकी सिद्धि करदेना रूप प्रयोजनको प्रकृष्ट रूपसे साधनेपर वादीका निग्रह कर सकता है । जब कि दूसरे प्रतिवादीने स्वकीय सिद्धान्त अर्थकी समीचीन हेतुओं द्वारा साधना कर दी है, तभी प्रतिवादी करके वादीका निग्रह संभव है । अन्यथा नहीं । अर्थात् - प्रतिवादी अपने पक्षको तो नहीं साधे और वादीके ऊपर केवल प्रतिज्ञाहानि उठादे, इतनेसे ही वादीका निग्रह नहीं हो सकता है । यह सिद्धान्त नियमसे निश्चित करलेना चाहिये । क्योंकि स्वकीय पक्षकी सिद्धि कर देनेसे ही यहां जयव्यवस्था मानी गयी है । वस्तुतः स्वपक्षकी सिद्धि कर देना ही जय है । यह श्री अकळंक देव आदि महर्षियोंने कथन किया है। 1 गम्यमाना प्रतिज्ञा न येषां तेषां च तत्क्षतिः । गम्यमानैव दोषः स्यादिति सर्वं समंजसम् ॥ १२६ ॥ और जिन विद्वानोंके यहां प्रतिज्ञा गम्यमान मानी गयी है, अर्थात्-शद्वों द्वारा नहीं कही जाकर सामर्थ्य से या अभिप्रायसे प्रतिज्ञा समझली जाती है, उन पण्डितोंके यहां तो उस प्रतिज्ञाकी कोई क्षति ( हानि ) नहीं । जब प्रतिज्ञा गम्यमान है तो उस प्रतिज्ञाकी हानि भी अर्थापत्ति से गम्यमान होती हुई ही दोष होवेगा । इस प्रकार उक्त अकलंक सिद्धान्त स्वीकार करनेपर तो सम्पूर्ण व्यवस्थानीति युक्त बन जाती है । हां, नैयायिक और बौद्धोंके विचारानुसार व्यवस्था तो नीतिमार्ग से बहिर्भूत है । न हि वयं प्रतिज्ञाहानिर्दोष एव न भवतीति संगिरामहे अनैकांतिकत्वात् साधनदोषात् पश्चात् तद्भावात् ततो भेदेन प्रसिद्धेः । प्रतिज्ञां प्रयोज्यां सामर्थ्यगम्यां वा वदतस्तद्धानेस्तथैवाभ्युपगमनीयत्वात् सर्वथा तामनिच्छतो वादिन एवासंभवात् केवलमेतस्मादेव निमित्तात् प्रतिज्ञाहानिर्भवति प्रतिपक्षसिद्धिमंतरेण च कस्यचिन्निग्रहाधिकरणमित्येतन्न क्षम्यते तवव्यवस्थापयितुमशक्तेः । आचार्य कहते हैं कि प्रतिज्ञाहानि नामका कोई दोष ही नहीं है, इस प्रकार हम प्रतिज्ञापूर्वक अंगीकार नहीं करते हैं । यदि वादी अपनी अंगीकृत प्रतिज्ञाकी हानिको कर देता है, यह उसकी बडी त्रुटी है। वादी तुका दोष अनैकान्तिक हो जानेसे पीछे उस प्रतिज्ञाहानिका सद्भाव हो रहा है । अतः उस प्रतिज्ञाहानिकी उस व्यभिचार दोषसे भिन्नपनकर के प्रसिद्ध है । जो विद्वान् शद्वों द्वारा प्रयोग करने योग्य उच्यमान अथवा शद्वोंसे नहीं कहकर अर्थापत्ति द्वारा सामर्थ्य से गम्य 45
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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