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तत्वार्थ लोकवार्तिके
रहनेवाले पुरुषके भी समानपनका व्यवस्थापन किया है । दोनोंके अज्ञान हो रहेका निश्चय है अतः हेत्वाभास प्रयोगके अवसरपर जातिका प्रयोग करना कैसे मी उचित नहीं है । तब तो जातिका क्षण सदोष ही रहा ।
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एवं तर्हि साधुवाधने प्रयुक्ते यत्परस्य साधर्म्याभ्यां दूषणाभासरूपं तज्जातेः सामान्यलक्षणमस्तु निरवद्यत्वादिति चेत्, मिथ्योत्तरं जातिरित्येतावदेव जातिलक्षणमकलंकप्रणीतमस्तु किमपरेण । " तत्र तिथ्योत्तरं जातिर्यथा नेकां विद्विषाम् ” इति वचनात् ।
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नैयायिककी ओर से कोई कहता है कि इस प्रकार व्यवस्था है, तब तो वादी द्वारा समीto हेतु प्रयोग किये जा चुकनेपर जो दूसरे प्रतिवादीका साधर्म्य और वैधर्म्य करके प्रत्यवस्थान उठाना दूषणाभासरूप होता हुआ वह जातिका सामान्य लक्षण हो जाओ। क्योंकि दूषणाभास जाति है । इस जातिके निर्दोष लक्षण में कोई अतिव्याप्ति आदि दोष नहीं आता है। इस प्रकार कहने पर आचार्य कहते हैं कि जातिके इस लक्षण में भी अव्याप्ति दोष है । हो, श्रीअकळंक देव महाराजके द्वारा बनाया गया जातिका लक्षण " मिथ्या उत्तर इतना ठीक जचता है । अतः यही जातिका लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव, दोषोंसे रहित हो रहा मान लिया जाओ । अन्य दूसरे दूषित लक्षणों करके क्या लाभ होगा ? वहां अकलंक शास्त्रमें इस प्रकारका कथन भी है कि मिथ्या उत्तर कहे जाना जाति है । जिस प्रकार कि अनेकान्तमत के साथ विशेष द्वेष करनेवाले नैयायिकों के यहां मानी गयी । अतः जातिका लक्षण मिथ्या उत्तर कहना यही निष्कलंक सिद्ध हुआ समझो ।
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तथा सति अन्याप्तिदोषस्यासंभवान्निरवद्यमेतदेवेत्याह ।
और तिस प्रकार होनेपर यानी जातिका लक्षण श्री अकलंक मतानुसार
" मिथ्या उत्तर
कर देनेपर अव्याप्ति दोष होनेकी सम्भावना नहीं रहती है । अतः यह लक्षण ही निर्दोष है । इसी aran श्री विद्यानन्द आचार्य वार्त्तिकों द्वारा कहते हैं ।
सांकर्यात् प्रत्यवस्थानं यथानेकांतसाधने ।
तथा वैयतिर्येण विरोधेनानवस्था ॥ ४५७ ॥ भिन्नाधारतयोभाभ्यां दोषाभ्यां संशयेन च । अप्रतीत्या तथाऽभावेनान्यथा वा यथेच्छया ॥ ४५८ ॥ वस्तुतस्तादृशैर्दोषैः साधनाप्रतिघाततः ।
सिद्धं मिथ्योत्तरत्वं नो निरवद्यं हि लक्षणम् ॥ ४६९ ॥
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