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________________ तखार्थचिन्तामणिः करनेसे वेधवेद्यकमाव बन गया और परपुरुषको निश्चय करानेसे प्रतिपाद्यप्रतिपादकभाव बन गया। अन्यथा यानी किसी निश्चित प्रमाण या वाक्यसे अनिश्चितका निश्चय कराना नहीं मानोगे अथवा निश्चित किये गये तस्वसे अन्यका निश्चय करना मानते हुए भी वेद्यवेदकभाव और प्रतिपायप्रतिपादक भावको नहीं मानोगे तो विद्वानोंके मध्यमें बौद्धोंको उपेक्षणीयपना प्राप्त हो जानेका प्रसंग होगा। भावार्थ-ऐसे अप्रमाणीक कहनेवाले बौद्धकी अन्य विद्वान् कोई अपेक्षा नहीं रखेंगे । मूर्ख समझकर टाल दिया करेंगे । जैसे कि मिनदेशीय राज्य करनेवाले अधिकारी वर्ग भोंदू स्वदेशीयप्रजाकी पुकारको टाल देते हैं। तथा च वस्तुविषयमध्यक्षमिव श्रुतं सिद्ध सदोषत्वान्यथानुपपत्तेः । तिस कारण प्रत्यक्षके समान श्रुतज्ञान भी वस्तुभूत अर्थको विषय करनेवाला सिद्ध हो जाता है। क्योंकि सद्बोधपना अन्यथा यानी पारमार्थिक पदार्थको विषय करना माने विना नहीं बन सकता है। अतः सोलहवीं वार्तिकद्वारा किया गया अनुमान युक्तिपूर्ण है। श्रुतज्ञानके विषय वस्तुभूत बहिरंग अर्थ है। अन्तरंग अर्थ और स्वको भी श्रुतज्ञान जानता है। . ____ तर्हि द्रव्येष्वेव मतिश्रुतयोनिबंधोस्तु तेषामेव वस्तुत्वात् पर्यायाणां परिकल्पितत्वात् पर्यायेष्वेव वा द्रव्यस्यावस्तुत्वादिति च मन्यमानं प्रत्याह। कोई एकान्तवादी मान रहे हैं कि सब तो यानी श्रुतज्ञानका सालम्बनपना सिद्ध हो चुकने पर अकेले द्रव्योंमें ही मतिज्ञान और श्रुतज्ञानोंका विषय नियत रहो । क्योंकि उन द्रव्योंको हो षस्तुभूतपना है । पर्यायें तो चारों ओर कल्पनाओंसे यों ही कोरी गढली गयी हैं। यथार्थ नहीं है, अथवा पर्यायोंमें ही मति श्रुतज्ञानोंकी विषयनियति मानलो द्रव्य तो वस्तुभूत पदार्थ नहीं है। इस प्रकार साभिमान स्वीकार कर रहे, प्रतिवादियोंके प्रति आचार्य महाराज स्पष्ट समाधिवचन कहते हैं। सर्वपर्यायमुक्तानि न स्युर्द्रव्याणि जातुचित् । सद्वियुक्ताश्च पर्यायाः शशश्रृंगोचतादिवत् ॥ १९ ॥ वस्तुभूत द्रव्ये विचारी सम्पूर्ण पर्यायोंसे रहित कदापि नहीं हो सकती हैं और पर्यायें मी सत् इव्यसे कदाचित् भी वियोग प्राप्त नहीं हो सकती हैं । जैसे कि शश (खरगोश ) के सींगकी सच्चाई, चिकनाई, टेडापन आदिक कोई नहीं है। भावार्थ-किसी भी समय द्रव्यको देखो, वह किसी म किसी पर्यायको धारे हुये हैं । पहिले जन्ममें जिनदत्त देवदत्त था, अब बालक है, कुपार युवा बादि अवस्थाओंको धारेगा। इसी प्रकार पुद्गल व्यके सदा ही घट, पट आदि अनेक परिणाम हो रहे है। तथा व्यके बिना केवळ पर्यायें स्थिर नहीं रहती हैं । आम्र फलका मठिापन, सुगंध, पीलापन
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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