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. तत्वार्यलोकवार्तिके
यद्वा नैकं गमो योत्र स सतां नैगमो मतः । धर्मयोधर्मिणोऽपि विवक्षा धर्मधर्मिणोः ॥२१॥
अपवा जो नैगम नयका दूसरा अर्थ यों किया जाता है कि " न एक गमः नैगमः " नो धर्म और धर्मी से एक ही अर्थको नहीं जानता है, किन्तु गौण, प्रधानरूपसे धर्म, धर्मी, दोनोंको विषय करता है, वह सज्जन पुरुषोंके यहां. नैगमनय माना गया है। अन्य नयें तो एक ही धर्मको जानती हैं। किन्तु नैगमनय द्वारा जानने में दो धर्मोकी अथवा दो धर्मियोंकी या एक धर्म दूसरे धर्माकी विवक्षा हो रही है । अतः जैसे कि जीवका गुण सुख है, या जीव सुखी है, यों नैगमनय द्वारा दो पदार्थोकी बप्ति हो जाती है।
प्रमाणात्मक एवायमुभयग्राहकत्वतः। इत्ययुक्तं इह ज्ञप्तेः प्रधानगुणभावतः ॥ २२ ॥ प्राधान्येनोभयात्मानमर्थं गृह्णद्धि वेदनम् । प्रमाणं नान्यदित्येतत्प्रपंचेन निवेदितम् ॥२३॥
यहां कोई शिष्य आपादन करता है कि जब धर्म धर्मा दोनोंका यह नैगम नय ग्राहक है, तब तो यह नय प्रमाणस्वरूप ही हो नायगा । क्योंकि धर्म और धर्मीसे अतिरिक्त कोई तीसरा पदार्थ तो प्रमाणद्वारा जाननेके लिये वस्तुमें शेष रहा नहीं है । इसपर आचार्य कहते हैं कि शिष्य का यों आक्षेप करना युक्त नहीं है। क्योंकि यहां नैगम नयमें धर्म धर्मी से एककी प्रधान और दूसरेकी गौणरूपसे ज्ञप्ति की गयी है । परस्परमें गौण प्रधानरूपसे मेद अमेदकको निरूपण करनेवाला अभिप्राय नैगम कहा जाता है, तथा धर्मधर्मी दोनोंको प्रधानरूपसे या उभय आत्मक वस्तुको ग्रहण कर रहा ज्ञान तो प्रमाण कहा गया है । अन्य ज्ञान ओ केवळ धर्मको ही या धर्मी को ही अथवा गौणप्रधानरूपसे धर्मधर्मी दोनोंको ही विषय करते हैं, वे प्रमाण नहीं है, नय हैं। इस सिद्धान्तको हम विस्तार करके पूर्व प्रकरणोंमें निवेदन कर चुके हैं । अतः नैगम नयको प्रमाणपनका प्रसंग नहीं आता है " जीवगुणः सुखं ” यहां प्रथमान्त मुख्य विशेष्यक शाब्दबोध करनेपर विशेषण हो रहा जीव अप्रधान है और सुख विशेष्य होनेसे प्रधान है तथा "सुखी जीवः" यहां विशेष्य होनेसे जीव प्रधान है और विशेषण होनेसे सुख अप्रधान है। दोनोंको नैगमनय विषय कर लेता है । और प्रमाण तो प्रधानरूपसे द्रव्य पर्याय उभय आरमक अर्थको विषय करता है। अतः प्रमाण और नैगममें महान् अन्तर है।