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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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प्रत्यवस्थानं जातिरित्येतद्धि सामान्यलक्षणं जातेरुदीरितं यौगैरेतच्च न सुघर्ट, साधनाभासप्रयोगेपि साधर्म्यवैधम्र्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानस्य जातित्वप्रसंगात् ।
आचार्य कहते हैं कि हमको यहां पहिले यह कहना है कि नैयायिकोंने जो कथित जातियोंको उपलक्षण मानकर अनन्त जातियां स्वीकार की हैं, यह उनका कथन युक्त है, हमको भी तिस प्रकार जातियां अनन्त हैं, ऐसा इष्ट है । क्योंकि जगत् में असमीचीन उत्तरोंका अनन्तपना प्रसिद्ध हो रहा है । गाली देना, अवसर नहीं देखकर अन्ट सुन्ट बकना, अनुपयोगी चर्चा करना, इत्यादिक सब असमीचीन उत्तर हैं । किंतु संक्षेपसे नैयायिकोंने विशेषरूपसे गणना कर जो चौवीस जातियां कहीं हैं, यह उनका कथन युक्तिरहित है । यही हमारे खण्डनका विषय है । जब कि अन्य असंख्य जातियों का भी सद्भाव है, तो चौवीस ही जातियां क्यों गिनायी गयीं हैं ? बताओ ! यदि तुम नैयायिक यों कहो कि उन अनन्त जातियोंका इन गिनायी गयीं चोवीस जातियोंमें ही अन्तर्भाव हो जाता है । अतः कोई अन्याप्ति, अतिव्याप्ति दोष नहीं हैं, आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि तुम्हारे दर्शनमें कहे गये जातिके सामान्यलक्षणकी वहां घटना नहीं हो पाती है । अतः सामान्य लक्षणके घटित नहीं होनेसे अनन्तजातियोंका चौवीसमें ही गर्म नहीं हो सकता है । देखिये, साधर्म्य और वैधर्म्य करके प्रत्यवस्थान देना जाति है । नैयायिकोंने यही जाति का सामान्यलक्षण न्यायसूत्रमें कहा है। किंतु वह लक्षण तो समीचीन गढा हुआ नहीं है । अव्याप्ति, अतिग्याप्ति, दोष आते हैं। चौवीस जातियों में से कई जातियोंमें वह लक्षण नहीं वर्तता है । संकोच कर या विस्तार कर जैसे तैसे बौद्धिक परिश्रम लगाकर अहेतुसमा, अनुपन्धिसमा आदि में सामान्य क्षणको घटाओगे तो यह क्लिष्ट कल्पना होगी तथा जातिके सामान्य लक्षण में अतिव्याप्ति दोष भी है । हेत्वाभासके प्रयोग में भी साधर्म्य और वैधर्म्य करके प्रत्यवस्थानके सम्भव जानेसे जातिपनेका प्रसंग हो जायगा । अतः नैयायिकों के यहां जातिका सामान्यलक्षण प्रशस्त नहीं है, जो कि अनन्त जातियोंमें घटित होकर उनको चौवीस जातियोंमें हीं गर्भित कर सके ।
तयेष्ठत्वान्न दोष इत्येके । तथाहि - असाधौ साधने प्रयुक्ते यो जातीनां प्रयोगः सोनभिज्ञतया वा साधनदोषः स्यात्, तद्दोषप्रदर्शनार्थम्वा प्रसंगव्याजेनेति । तदप्ययुक्तं । स्वयमुद्योतकरेण साधना भासे प्रयुक्ते जातिप्रयोगस्य निराकरणात् । जातिवादी हि साधनाभासमेतदिति प्रतिपद्यते वा न वा १ यदि प्रतिपद्यते य एवास्य साधनाभासत्वहेतुदोषोऽ नेन प्रतिपन्नः स एव वक्तव्यो न जातिः प्रयोजनाभावात् । प्रसंगव्याजेन दोषप्रदर्शनार्थमिति चायुक्तं, अनर्थसंशयात् । यदि हि परेण प्रयुक्तायां जातौ साधनाभासवादी स्वप्रयुक्तसाधनदोषं पश्यन् सभायामेवं ब्रूयात् मया प्रयुक्ते साधने अयं दोषः स च परेण नोद्भावितः किं तु जातिरुद्भावितेति, तदापि न जातिवादिनो जयः प्रयोजनं स्यात्, उभयो