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________________ तत्वार्थ श्लोकवार्तिके उधर दृष्टि व ही वेष्टित कर दी जाती है वैसे ऋजुसूत्र नयका विषय वर्तमानकालकी पर्याय नियत है । २४८ ऋजुसूत्रं क्षणध्वंसि वस्तु सत्सूत्रयेदृजु । प्राधान्येन गुणीभावाद्द्रव्यस्यार्पणात्सतः ॥ ६१ ॥ ऋजुसूत्र नय पर्यायको विषय करनेवाला है । क्षण में ध्वंस होनेवाली वस्तुके सद्भूत व्यक्त रूपका प्रधानता करके ऋजुसूत्र नय अच्छा सूचन (बोध) करा देता है । यद्यपि यहां नित्य द्रव्य विद्यमान है तो भी उस सत् द्रव्यकी विवक्षा नहीं करनेसे उसका गौणपमा है । अर्थात् द्रम्पकी भूतपर्यायें तो नष्ट हो चुकी हैं और भविष्यपर्यायें नहीं जाने कब कब उत्पन्न होगीं । अतः यह नय वर्तमानकाळकी पर्यायको ही विषय करता है । त्रिकालान्वयी द्रव्यकी विवक्षा नहीं करता है । यद्यपि एक क्षणके पर्यायसे ही पढना, पचना, घोषणा, व्यान करना, प्रामान्तरको जाना आदिक अनेक लौकिक कार्य नहीं सघ सकते हैं । किन्तु यहां केवल इस नयका विषय निरूपण कर दिया है लोक व्यवहार तो सम्पूर्ण नयोंके समुदायसे साधने योग्य है । " सामग्रीजानिका नैकं कारणं ,, 1 निराकरोति यद्रव्यं बहिरंतश्च सर्वथा । स तदाभोऽभिमंतव्यः प्रतीतेरपलापतः ॥ ६२ ॥ जो बौद्धों द्वारा माना गया ज्ञान वर्तमान पर्यायमात्रको ही ग्रहण करता है और बहिरंग अन्तरंग द्रव्यों का सभी प्रकारसे खण्डन करता है वह उस ऋजुसूत्र नयका आभास ( कुनय ) मानना चाहिये । क्योंकि बौद्धोंके अभिप्राय अनुसार माननेपर प्रमाण प्रसिद्ध प्रतीतियोंका छिपाना हो जाता है । अर्थात् - सभी पर्यायें द्रव्यसे अन्वित होरही हैं। विना द्रव्यके परिणाम होना असम्भव है । सूत्र भले हीं केवळ पर्यायोंको ही जाने, किन्तु द्रव्यका खण्डन नहीं करे । कार्यकारणता चेति ग्राह्यग्राहकतापि वा । वाच्यवाचकता चेति कार्थसाधनदूषणं ॥ ६३ ॥ अन्वित द्रव्योंको नहीं माननेपर बौद्धोंके यहां कार्यकारण भाव अथवा ग्राह्यग्राहक माब और वायवाचक भाव भी कहां बन सकते हैं। ऐसी दशामें भला कहां स्वकीय इष्ट अर्थका साधन औरपरपक्षका दूषण ये विचार बन सकेंगे ? पदार्थोंको कालान्तरस्थायी माननेपर ही कार्यकारण भाव बनता है । कुलाल, मृत्तिका अनेक क्षणोंतक ठहरेंगे, तभी घटको बना सकेंगे । क्षणमात्रमें नष्ट होनेवाले तन्तु और कोरिया विचारे वस्त्रको नहीं बना सकते हैं। ऐसे ही ज्ञान और ज्ञेयमें ग्राह्यग्राहक
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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