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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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दिति चेत्, तर्हि वेदांतवादिनः कथं न विपर्यस्ताः सर्वथा सर्वैकत्वमतस्याध्यक्षविरुद्धत्वात् परस्परनिरपेक्षद्रव्यगुणादिभेदाभेदमननवत् । तद्विपरीतस्यानेकांतस्य जात्यंतरस्य प्रतीतेः।
इस प्रकार विधिवादियोंकी ओरसे विकरुप उठाकर नियोगवादियोंके मतका जैसे यह खण्डन किया गया है, वैसा विचार चलानेपर विधिवादियों के ऊपर भी वही आपादन समानरूपसे लागू हो जाता है। वाक्यके अर्थ विधिको भी प्रवृत्तिका कारणपना नहीं घटित होताहै। अप्रवर्तकपनेकी अपेक्षा विधिकी नियोगसे कोई विशेषता नहीं है। प्रकरण में प्राप्त हुये विकल्पोंका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। प्रतिनारायणके चक्रसमान विधिवादीके ऊपर भी वे ही विकल्प उठाये जा सकते हैं । देखिये कि उस विधिका भी स्वभाव यदि नियमसे प्रवर्तकपना माना जायगा तो घेदान्तवादियों के समान प्रभाकर मत अनुयायी, बुद्धमत अनुयायी, चार्वाक बादि दार्शनिकोंकी भी अौतमें प्रवृत्ति करा देनेपनका प्रसंग विधिको प्राप्त होगा । अर्थात्-जो जिसका स्वभाव है वह ग्यारे न्यारे पुरुषों के लिये बदल नहीं सकता है। जैसे कि स्वर्गीके हाथमें भी मूसळ कूटनेवाला ही रहेगा । हां, यदि विधिको अप्रवर्तक स्वभाव माना जायगा तब उक्त दोष तो टल जाता है। किन्तु मप्रवर्तक स्वभाववाली विधिसे तो वेदान्तवादियोंकी भी प्रवृत्तिको करानेवाला विधि अर्थ नहीं हो सकेगा। यदि विधिवादी यों कहें कि स्वयं विपर्ययज्ञानको नहीं धार रहे हम विधिवादी तो उस विधिसे प्रवर्स नाते हैं। हां, जो मिथ्यावानी है थे उस विधिके द्वारा प्रवृत्ति नहीं कर पाते हैं । इस प्रकार विधिवादियोंके कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि उस सम्यग्ज्ञानीपन और मिथ्याज्ञानीपनका अच्छा विमाग होना भला किससे निर्णीत किया जाय ! बताओ। पदि तुम वेदान्तवादी इसके उत्तरमें यों कहो कि प्रमाणोंके द्वारा अबाधित किये गये मतका माश्रय करनेवाले सम्यग्ज्ञानी है, और इतर यानी प्रमाणोंसे बाधे जा रहे मतका माश्रय कर लेनेसे पुरुषके मिष्याज्ञानीपनका निर्णय कर लिया जाता है, इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो घेदान्तवादी ही विपर्ययज्ञानवाः क्यों नही विचार किये जायेंगे ! क्योंकि उनका सभी प्रकार सबको एक परमनापनेकी विधि करनेका मत तो प्रत्यक्षप्रमाणसे विरुद्ध है। प्रत्यक्ष प्रमाणद्वारा अमि, जल, सर्प, नोला बादि मिन भिन्न नाना पदार्थ प्रतीत हो रहे हैं । अतः " सर्वमेकं " यह विधिवादियोंका मन्तव्य प्रमाणोंसे पापित है। जैसे कि परस्परमें नहीं अपेक्षा रखतेपुर द्रव्य और गुण या अवयष गौर अवयवी बादिका सर्वया भेद तथा अभेद मानना प्रत्यक्षविरुद्ध है। क्योंकि उन सर्वथा मेद या बमेदोंसे विपरीत हो रहे तीसरी जातिबाले कथंचिद् भेद अमेद स्वरूप अनेकान्तकी प्रतीति हो रही । अर्थात्-द्रव्य, गुण आदिका सर्वथा भेद माननेषा मैयायिक हैं। सांख्य उनका अभेद मानते हैं। ये दोनों मत प्रमाणोंसे विरुद्ध है। हां, पर्याय और पर्यायीमें कथंचिद् भेद, अमेद, प्रतीत हो रहा है। इस प्रकार सर्वथा एकत्वको कहनेवाले विधिवादी मी विपर्ययज्ञामवाले हो जाते हैं।