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________________ ५६१ तत्वार्थ लोकवार्तिक प्रमेयको कई बार कहा जाता है। देखिये, श्री उमास्वामी महाराजने जो सूत्रोंमें गंभीर अर्थ कहा है, उसीकी श्री विद्यानन्द आचार्यने वार्तिकोंमें बखाना है । पुनः वार्तिकोंका भी अनेक स्थलोंपर विव. रण करना पड़ा है। देशमाषा करनेवालको भाषानुवादमें अर्थ, भावार्थ दिखाते हुये पांच पांच छह छह वार एक ही प्रमेयका कई भंगियोंसे निरूपण हो गया दिखलाना पडा है । मन्दक्षयोपशम वालों के लिये श्री वीर भगवान के उपदेशकी लम्बी आम्नाय रक्षित रहनेका अन्य क्या उपाय हो सकता है ! अननुभाषणकी भी यही दशा है । बज्ञान निग्रहस्थान तो अकेला ही मान लिया जाय तो कहीं अच्छा है । प्रतिज्ञाहानि आदिक भी तो अज्ञान ही है। इसी प्रकार पर्यनुयोज्योपेक्षण, अप्रतिमा, विक्षेप आदि निग्रहस्थानोंका ढंग भी अच्छा नहीं है। स्वपक्षकी सिद्धि करना ही दूसरेका निप्रह हो जाना है । यह अकलंक रीति ही प्रशस्त है । अन्यथा इन प्रतिज्ञाहानि बादिकसे कई गुने अधिक निग्रहस्थान माननेपर पूर्णता हो पाती है । और इनमेंसे पांच छरके स्वीकार कर लेनेसे ही नैयायिकोंका अभीष्ट प्रयोजन सध सकता है। देखो, बौद्धोंने एक वादीका दूसरा प्रतिवादीका यों इस ढंगसे असावनाङ्ग वचन और अदोषोद्भावन, इन दो ही निग्रहस्थानोंसे निर्वाह कर लिया है, विचार करनेपर बद्धोंके दो निग्रहस्थान भी ठीक नहीं बैठते हैं। श्री माणिक्यनन्दी आचार्यने जो व्यवस्था दी है, वह निरवद्य है । "प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भाबितौ परिद्रतापरिहतदोषौ वादिनः साधनतदामासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च "। वादीने अपने पक्षको सिरिके लिये स्वसिद्धान्त अनुसार प्रमाण वाक्य कहा, पुनः प्रतिवादीने उस प्रमाणवाक्यमें दोषयुक्तपना उठा दिया। पश्चात् बादीने उस दोषका परिहार कर दिया। ऐसी दशामें वादीका हेतु स्वपक्षसाधक होता हुषा जयका प्रयोजक है और प्रतिवादीका कथन दूषणरूप होता हुआ पराजयका नियामक है। तथा वादीने हेत्वामासका प्रयोग किया है। प्रतिवादीने उसके ऊपर असिद्ध,विरुद्ध आदि हेत्वामागेको उठा दिया । यदि वादी उन दोषोंका परिहार नहीं करता है तो ऐसी दशामें वादीका उक्त हेतु हेत्वाभास होता हुआ पराजयका व्यवस्थापक है, और स्वपक्षसिद्धिको करते हुये प्रतिवादीका दूषण उठाना भूषण होता हुआ जयदायक है। इसी प्रकार छलको उठा देनेसे भी कोई जीत नहीं सकता है, जैसा कि नैयायिकोने मान रक्खा है। प्रथम तो चतुरंगवादमें कोई पण्डिस छलपूर्वक प्रयोग नहीं करता है । और कषायवश यदि कोई कपटव्यवहार भी करे तो अग्रिम विद्वान्को उसके छलवक्तव्यको ज्ञात कर अपने पेटमें डाल लेना चाहिये । प्रायः उपस्थित हो रहे सभी विचारशाळियोंको उसकी कपटनीतिका परिज्ञान हो जाता है। ऐसी बातको मुखसे उच्चारण करनेसे गम्भीर विद्वात्तामें बहा लग जाता है। तत्वज्ञान के विशेष अंशोंमें विचार करनेवाले विद्वानोंको अपने सम्यकरके अंग उपगूहन और वात्सल्य भावोंकी रक्षा करना अत्यावश्यक है। लौकिकसभ्यता और शास्त्रीय सभ्यता दोनों ही के गालिका प्रदानसदृश छळ उद्भावन बादि व्यवहार अनुकूल नहीं है । अतः " प्रमाणतदामासौ दुष्टतयोद्भावितो" इस सिद्धान्तके अनुसार ही
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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