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तत्वार्थचिन्तामणिः
जय पराजय व्यवस्था माननी चाहिये । नैयायिकोंने अर्थके विकल्पोंकी उपपत्ति करके वचनका विधात करना छल कहा है। न्यायभाष्यकारने छलके सामान्य लक्षणका उदाहरण दिखलाने के लिये अशक्यता प्रकट की है। किसी मद्र वैश्यने ज्योतिषीसे पूंछा कि मेरे घरमें लडका होगा या लडकी जन्मेगी ! घूर्त ज्योतिषाने उत्तर लिख दिया कि "कन्या न पुत्रः" । उसमे मनमें विचार लिया कि यदि इसके कन्या उत्पन्न होगी तब तो नकारको पुत्र शब्द के साथ जोर दूंगा और पदि पुत्र हुमा तो न अव्ययको कन्याके साथ जोडकर कह दूंगा कि पुत्र उत्पन्न होगा,कन्या नहीं। किन्तु यह छल व्यवहार करना अनुचित है । नैयायिकोंने छळके वाक् छळ, सामान्यछल, उपचार छह ये तीन भेद स्वीकार किये हैं। इनपर अच्छा विवेचन किया गया है। बात यह है कि न्यायपूर्वक कहनेवालोंको तस्वपरीक्षाके अवसरपर छलका प्रयोग नहीं करना चाहिये । अन्यथा पत्रवाक्योंके प्रयोगमें या शून्यवादीके प्रति प्रमाण बादिकी सिद्धि करानेमें भी नैयायिकोंका छल समझा जाकर पराजय हो जायगा । वस्तुतः स्वपक्षसिद्धिकरके ही स्वजय और परनिग्रह मानना चाहिये । तुच्छ व्यवहार करना उचित नहीं है । बागे चलकर चौवीस जातियोंका विचार चलाया है। गौतम न्यायमूत्र और न्यायमाष्य अनुसार साधर्म्यसमा भादि जातियोंका दूषणामासपना भी नैयायिकोंने साधा है, जो कि वहां प्रेक्षणीय है । विचारनेपर जातिके सामान्य लक्षणमें अतिव्याप्ति दोष आता है। स्वाभासमें भी जातिका लक्षण चला जाना इष्ट करनेपर तो नैयायिकोंको मारी मुइकी खानी पड़ी है । न्यायभाष्यकार और न्यायवृत्तिकारके विमर्श अनुसार पूर्वपक्ष करनेपर प्रमेयकमलमार्तडमें नैयायिकोंका अनैयायिकपन प्रकट कर दिया है। जातिके लक्षण अव्याप्ति दोष भी आता है। जैसे कि पढा दुआपन ब्राह्मणका कक्षण कर देमेसे अव्याप्ति, अतिव्याप्ति दोनों बाती । बहुतसे प्रामीण कृषकब्राह्मण कुछ मी पढे हुये नहीं है। अन्य क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र भी बहुत पढे हुये मिलते हैं। अथवा धौले रंगवाली,यों गायका लक्षण कर देनेसे दोनों दोष पा जाते हैं। दो दोष तो एकत्र संभव जाते हैं। अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव इन तीनों दोषोंका एकत्र संभवना बलीक है । अतः तस्व. निर्णय करनेके लिये किये गये वादमें प्रतिज्ञाहानि आदि या छळ अथवा असाधनाङ्ग वचन बदोषोदावन इनसे जैसे निग्रह नहीं हो पाता है, उसी प्रकार मिथ्या उत्तर स्वरूप सैकडों जातियोंसे मी निग्रह नहीं होता है। स्वपक्षकी सिद्धि और उसकी प्रसिद्धि करके ही जय, पराजय, म्यवस्था नियत है। छळ, जाति, निग्रहस्थानों करके जिन जल्प, वितण्डा,नामक शास्त्रोंमें साधन चोर उछाहने दिये जाते हैं। उनसे तत्वनिर्णयकी रक्षा नहीं हो पाती है । इसके अनन्तर श्री विद्यानन्दस्वामीने संक्षेपसे प्रातिम वादका निरूपण कर तत्त्वार्थाधिगम भेदके प्रकरणका पूर्वोक्त नयवाक्योंके साथ सन्दर्भ दिया है। यद्यपि मूल सूत्रकारने स्वयं " प्रमाणनयैरधिगमः " " निर्देशस्वामित्व, ससंख्या " इन सूत्रोप्ने तत्वार्थीका अधिगम होना कह दिया है। किन्तु आग्रहपूर्वक एकान्तों को बखान रहे नैयायिक