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________________ तत्वार्थोकवार्तिके करनेवाले नयों के साथ यथायोग्य कलह हो जानेकी प्रवृत्ति हो जानेसे अस्तित्व और नास्तित्व के प्रयोजक धर्म घटित हो जाते हैं । प्रत्येया प्रतिपर्यायमविरुद्धा तथैव सा । प्रमाणस भंगी तां विना नाभिवाग्गतिः ॥ ९५॥ २७४ प्रत्येक पर्यायमें तिली प्रकार नयस्तभंगी सम्झ लेनी चाहिये, जिस ही प्रकार कि वह प्रमाण सप्तभंगी अविरुद्ध होती हुई पूर्वप्रकरणोंसे व्यवस्थित की जा चुकी है । उस नयप्तभंगी के विना चारों ओरसे वचन बोलनेका उपाय नहीं घटित हो पाता है । विशेष यह दीखता है कि सप्तमं नास्तित्वकी व्यवस्था करानेके लिये विरुद्ध धर्म अपेक्षणीय हैं और प्रमाण सप्तभंगीमें नास्तित्व धर्मकी व्यवस्था के लिए अविरुद्ध आरोपित धर्मसे नास्तित्वकी व्यवस्था है ! अथवा सर्वथा भिन्न पदार्थों की अपेक्षा विरुद्ध पदार्थों की ओरसे मी नास्तित्व बन जाता है । प्रमाणसप्तभंगी और नय सप्तभंगीमें अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखना और अन्य धर्मोकी उपेक्षा रखना यह भेद तो प्रसिद्ध ही है । इइ तावन्नैगमस्य संग्रहादिभिः सह षड्तिः प्रत्येकं षट् सप्तभंग्यः, संग्रहस्य व्यवहारादिभिः सह वचनात् पंच, व्यवहारस्यर्जुसूत्रादिभिश्चतस्रः, ऋजुसूत्रस्य शब्दाभिस्तिस्रः, शब्दस्य समभिरूढादिभ्यां द्वे, समभिरूढस्यैव भूतेनैका, इत्येकविंशतिमूलन यसप्तभंग्यः पक्षप्रतिपक्षतया विधिप्रतिषेधकल्पनयाव गंतव्याः । यहां नैगमनयकी संग्रह व्यवहार आदिक छह नयोंके साथ एक एक होती हुई छह सप्तभगियां बन जाती हैं। अर्थात् - नैगम नयकी अपेक्षा अस्तित्व १ और संग्रहसे नास्तित्व २ क्रम उभय ३ अक्रमसे अवक्तव्य ४ नैगम और अक्रमसे अस्ति अवक्तव्य ५ संग्रहसे और अक्रमसे नास्ति अवक्तव्य ६ नैगम और संप्रहसे तथा अक्रमसे विवक्षा करनेपर अस्तिनास्ति, अवक्तव्य, ७ इन सात मंगोंवाली एक सप्तमंगी हुई । इसी प्रकार नैगमसे विधिकी कल्पना कर और व्यवहार, ऋजुसूत्र शब्द, समधिरूढ और एवंभूतसे प्रतिषेधकी कल्पना कर दो । मूलभंगोंको बनाकर शेष पांच मंगोंको क्रम, अक्रम आदिसे बनाते हुये पांच सप्तमंगियां बना लेना । नैगमनयकी संग्रह आदिके साथ छह सप्तमंगियां हुयीं । तथा संग्रहनयकी अपेक्षा विधिकी कल्पना कर और व्यवहारनयकी अपेक्षासे प्रतिषेध कल्पना करते हुये दो मूळ भंग बना कर सप्तभंगी बना लेना । इसी प्रकार संग्रहकी अपेक्षा त्रिधिकी कल्पना कर ऋजुसूत्र, शद्व, समभिरूढ और एवंभूत नयोंकी अपेक्षा नास्तित्व मान कर अन्य चार सप्तभंगियां बना लेना । इस प्रकार संग्रहनयकी व्यवहार आदिके साथ कथन कर देनेसे एक एक प्रति एक एक सप्तभंगी होती हुई पांच सप्तमंगिया हुयीं तथा व्यवहारकी अपेक्षा अस्तित्व कल्पना कर और ऋजुसूत्र की अपेक्षा नास्तित्वको मान कर इन दो मूळभंगों से एक सप्तभंगी बनाना । इसी
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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