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तत्वार्यचिन्तामणिः
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अद्वैतवादी कहते हैं कि परमब्रह्म ही तो विधि पदार्थ है और संसारी जीवोंको वही अविद्याके वशसे प्रमाणस्वरूप और प्रमेयस्वरूप प्रतिभास जाता है। सच पूछो तो केवल शुद्ध प्रतिमासके अतिरिक्तपमे करके व्यावृत्ति भादिका भी असम्भव है। अब आचार्य कहते हैं कि विधिवादियों के इस वक्तव्यका भी उत्तर दिया जा चुका है । क्योंकि प्रतिभाससे चोखे अतिरिक्त हो रहे प्रतिभासने योग्य घट, पट आदि अर्थोकी व्यवस्था करा दी जा चुकी है। अतः नियोगको प्रमाणपनेके समान विधिको भी प्रमाण आत्मक माना जायगा तो अनेक दोष आते हैं। .
प्रमेयरूपो विधिरिति वचनमयुक्त, प्रमाणाभावे प्रमेयरूपत्वायोगात्तस्यैव च द्वयरूपत्व विरोधात् । कल्पनावशाद्विधेयरूपत्वे अन्यापोहवादानुषंगस्याविशेषात् ।।
तो विधि प्रमेयस्वरूप है, इस प्रकार द्वितीय पक्ष अनुसार किसीका वचन भी युक्तिरहित है । क्योंकि प्रमाणको स्वीकार किये विना विधिमें प्रमेयस्वरूपपना नहीं घटता है । और उस एक ही विधि पदार्थको एकान्तवादियोंके यहां प्रमाणपन, प्रमेयपन, इन दो स्वरूपपनका विरोध है । यदि कल्पनाके वशसे विधिको प्रमाण, प्रमेय दोनों रूपपना माना जावेगा तो बौद्धोंके अन्यापोह वादका प्रसंग आता है । कोई अन्तर ऐसा नहीं है. जिससे कि विधिमें प्रमेयपन मानते हुये अन्य व्यावृत्तियां स्वीकार नहीं की जावें । एक विधिमें दोपना तो तभी आ सकता है, जब कि अप्रमाणपनकी व्यावृत्ति करके प्रमाणपना और अप्रेमयपनकी व्यावृत्ति करके प्रमेयपना उसमें धर दिया जाय । अन्यापोहको प्रमेय माने विना तो आपको प्रमेय न्यारा कहना पड़ेगा, अन्य कोई उपाय नहीं है।
प्रमाणप्रमेयोभयरूपो विधिरित्यप्यनेन निरस्तं भवतु । अनुभयरूपोऽसाविति चेत्, खरश्रृंगादिवदवस्तुतापत्तिः कथमिव तस्य निवार्यतां ?
- तब तृतीय विकल्पके अनुसार प्रमाण, प्रमेय उभयस्वरूप विधि मानी जाय, यह कल्पना भी इस उक्त कथन करके निराकृत कर दी गयी हुई समझो। क्योंकि दो रूपपनेमें जो दोष आते हैं वही दोष उभयरूप माननेमें प्राप्त होते हैं । दो अवयव जिसके हैं वह द्वय है । उभय भी वैसा ही है। यदि चतुर्थकल्पना अनुसार वह विधि अनुभयस्वरूप मानी जायगी अर्थात् प्रमाण प्रमेय दोनोंके साथ नहीं तदात्मक हो रहे, विधिको.वाक्यका अर्थ माना जायगा, तब तो खरविषाण, आकाशकुसुम, आदिके समान उस विधिको अवस्तुपनकी आपत्ति हो जाना भला किस प्रकार निवारण किया जा सकता है ! बताओ तो सही । अतः वाक्यका अर्थ विधि नहीं हो सकता है । इसपर अष्टसहस्रीमें और भी अधिक विस्तारसे विचार किया गया है। --" तथा यंत्रारूढो वाक्यार्थ इत्येकांतोपि विपर्यय एवान्यापोहमंतरेण तस्य प्रवर्तकत्वायोगाद्विधिवचनवत् । एतेन भोग्यमेव पुरुष एव वाक्यार्थ इत्यप्येकान्तो निरस्ता, नियोगविशेषतया च यंत्रारूढादेः प्रतिविहितत्वात् । न पुनस्तत्मतिविधानेतितरामादरोस्माकमित्युपरम्यते । ....