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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
पन घुस पडेगा, जो कि उनकी सत्ताको चाट जायगा। बौद्धोंका अनुभव है कि सर्वागीण परिपूर्ण प्रमाण कोई भी ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान प्रमाण है । इसका अर्थ यही है कि यह ज्ञान अप्रमाण नहीं है। कोई पुरुष सुन्दर है, इसका अर्थ यह है कि यह कुरूप नहीं है । पण्डितका अर्थ मूर्खपने से रहित इतना ही है । वैसे परिपूर्ण सुन्दरता और अगाध पाण्डित्य तो बहुत विलक्षण पदार्थ हैं । शब्दोंके द्वारा तदितर पदार्थोंकी व्यावृत्तियां कही जाती हैं । हेतुके गुण हो रही विपक्षव्यावृत्तिका मूल्य अधिक है । पक्ष सत्त्वका इतना शुल्क नहीं है | अतः कल्पनासे विधिमें यदि अनेक स्वभाव माने जा रहे हैं तो कल्पित अन्यापोहको भी शका वाध्य अर्थ कह देना चाहिये । बौद्धोंसे माने गये शुद्ध सम्वेदन में अन्यापोहस्वरूप प्रमाणता और प्रमेयता धर्म पाये जाते हैं ।
पदार्थ स्वरूपाभिधायकत्वमंतरेणान्यापोहमात्राभिधायकस्य शद्वस्य क्वचित्प्रवर्तकस्वायोगादन्यापोहो न शब्दार्थ इति चेत्, तर्हि पदार्थस्वरूपाभिधायकस्यापि शद्धस्यान्यापोहानभिधायिनः कथमन्यपरिहारेण कंचित्प्रवृत्तिनिमित्तत्वसिद्धिः येन विधिमात्रं शद्वार्थः स्यात् ।
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विधिवादी कहते हैं कि शद्वको यदि पदार्थ के स्वरूपों की विधिका कथन करा देनापन तो नहीं माना जाय, केवल अन्योंकी व्यावृत्तिका ही कथन करना शद्वका कर्तव्य कहा जायगा तो किसी एक विवचित पदार्थ में ही शद्वका प्रवर्तकपना घटित नहीं होगा । अतः अन्यापोह शद्वका
हो जाने से शद्व द्वारा किसी
अर्थ नहीं है। अर्थात् - अन्यापोहको ही कहते रहने में चरितार्थ नियत एक पदार्थ में ही जो श्रोताकी प्रवृत्ति हो रही है वह नहीं बन सकेगी। ऐसी दशा में शद्वका उच्चारण व्यर्थ पडता है। हां, शद्वद्वारा विधिका निरूपण होना माननेपर तो किसी विशेष पदार्थ में ही अर्थी जीवकी प्रवृत्ति होना बन जाता है । अतः विधिवादी हम अन्यापोहको शद्वका वाय अर्थ नहीं मानते हैं । इस प्रकार अद्वैतवादियोंके कहनेपर हम जैन कहते हैं कि तब तो वस्तु विधिस्वरूपका कथन करनेवाले ही शद्वके द्वारा यदि अन्यापोहका कथन करना नहीं माना जायगा तो उस अन्यापोहको नहीं कहनेवाले शद्वका अन्योंका परिहार करके किसी एक नियत विषयमें ही प्रवृत्तिका निमित्तकारणपना भला कैसे सिद्ध होगा ! जिससे कि केवळ विधि ही शद्वका अर्थ हो सके । अर्थात् - जबतक विवक्षित पदार्थसे अतिरिक्त पडे हुये पदार्थोकी व्यावृत्ति नहीं की जायगी तबतक उसी नियत पदार्थ में प्रवृत्ति भला कैसे हो सकेगी ? विचारो तो सही ।
परमपुरुष एव विधिः स एव च प्रमाणं प्रमेयं चाविद्यावशादाभासते प्रतिभासमा - त्रव्यतिरेकेण व्यावृत्त्यादेरप्यसंभवादित्यपि दत्तोत्तरं, प्रतिभासव्यतिरिक्तस्य प्रतिभास्यस्यार्थस्य व्यवस्थापितात्वात् ।