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तत्वार्थीचन्तामणिः
सर्वदा उन तीनों ज्ञानोंको सम्यक्त सहितपना सुलभतासे प्राप्त हो जाता है । भावार्थ-उत्तर दलमें पदि एवकार नहीं लगाया जाय तब तो " च " के विना भी तीनों बानोंका समीचीनपना ज्ञात हो जाता है । क्योंकि पूर्व अवधारणसे तो मनःपर्यय और केवलज्ञानका मिथ्यापन निषेधा गया पा । मति, श्रुत, अवधि, ज्ञानोंका समीचीनपना तो नहीं निषिद्ध किया गया है।
मिथ्याज्ञानविशेषः स्यादस्मिन्पक्षे विपर्ययः । संशयाज्ञानभेदस्य चशब्देन समुच्चयः ॥ ११ ॥
तो इस पक्षमें सूत्रका च शब्द व्यर्थ पडा । क्योंकि "च" शब्दद्वारा किये गये कार्यको उत्तर अवधारणके निषेधसे ही साध लिया गया है। अतः सूत्रोक्त विपर्यय शब्दका अर्थ सामान्य मिथ्याज्ञान नहीं करना, किन्तु विपर्यका अर्थ मिथ्याानोंका विशेष भेद भ्रान्तिस्वरूप विपर्यय लेना, जिसका कि लक्षग " विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः " वहां वर्त रहे पदार्थसे सर्वथा विपरीत ही पदार्थकी एक कोटिका निश्चय करना है। अब च शब्द करके मिथ्याज्ञान के अन्य शेष बचे हुये संशय और नज्ञान इन दो भेदोंका समुच्चय कर लेना चाहिये । इस ढंगले च शब्द सार्थक है ।
अत्र मतिश्रुतावधीनामविशेषेण संशयविपर्यासानध्यवसायरूपत्वसक्तौ यथाप्रीति तदर्शनार्थमाह । ____ यहां प्रकरणमें सूत्रके सामान्य अर्थ अनुसार मति, श्रुत, अवधि इन तीनों शानोंको विशेषता रहित होकरके संशय, विपर्यय, अनध्यवसायरूप विपर्ययानेका प्रसंग आता है। अर्थात्-तीनोंमें से प्रत्येकज्ञानमें मिथ्याज्ञानके तीनों भेद सम्भवनेका प्रसंग आवेगा। किन्तु वह तो सिद्धान्तियोंको अभीष्ट नहीं है । अतः प्रतीति अनुसार जिस जिस ज्ञानमें विपर्ययज्ञानके जो दो, तीन आदि भेद सम्मवते हैं, उनको दिखलानेके लिये श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिकद्वारा कथन करते हैं ।
तत्र त्रिधापि मिथ्यात्वं मतिज्ञाने प्रतीयते। श्रुते च द्विविधं बोध्यमवधौ संशयाद्विना ॥ १२ ॥ तस्येन्द्रियमनोहेतुसमुद्भतिनियामतः । इन्द्रियानिन्द्रियाजन्यस्वभावश्चावधिः स्मृतः ॥ १३ ॥
तिन तीनों ज्ञानों से मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें तो तीनों भी प्रकारका मिथ्यापना प्रतीत हो रहा है। तथा अवधिज्ञानमें संशयके विना विपर्यय और अनध्यवसायस्वरूप दो प्रकार मिथ्यापना जाना जा रहा है। कारण कि वह मतिज्ञान तो नियमसे इन्द्रिय और मन इन कारणोंसे मळे प्रकार उत्पन हो