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तत्वार्थश्वोकवार्तिके
साधर्म्य हो जानेसे ज्ञप्ति करनेमें कभी प्रत्यक्ष या अनुमान आदिसे विरोध नहीं आता है । तिस कारण इस अर्थका अविरोध करके ही नय ज्ञान व्यंजक है । ऐसा निश्चय कर लिया जाता है । अन्वय दृष्टान्तका साधर्म्य मिला देनेसे अन्य दृष्टान्तोंका निराकरण करदिया जाता है। इस कराण इस दृष्टान्त साधर्म्यके वचन करके दृष्ट प्रत्यक्ष प्रमाणसे आनेवाले विरोधकी निवृत्ति हो जाती है । अन्वय दृष्टान्तके विधर्मापने से यदि नय व्यंजक होता तो किसी भी प्रकार से प्रत्यक्ष द्वारा आये हुये विरोधकी निवृत्ति नहीं हो सकती थी और अदृष्ट वैपरीत्य यानी दृष्टसे विपरीतपना नहीं इस विशेषण करके तो अनुमान आदि प्रमाणोंसे आने योग्य विरोधोंका परिहार हो जाता है । क्योंकि दृष्ट विपरीत हो रहे अनुमान आदि विरुद्ध पदार्थोंका नयों द्वारा ज्ञान हो जाना सभी प्रकारोंसे अनिष्ट है । "सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यात" इस वाक्य करके दृष्टान्तसाधर्म्य और अदृष्टान्तवैधर्म्य ये दोनों अर्थ निकल आते हैं । अतः दृष्टान्तसाधर्म्यसे दृष्ट विरोध और अदृष्टान्त वैधर्म्यसे इष्ट विरोधकी निवृत्ति हो जाती है । प्रमाणोंसे अविरुद्ध स्वरूप करके उस साध्यका व्यंजक नयज्ञान होता है ।
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स्वयमुदाहृतश्चैवं लक्षणो नयः स्वामिसमंतभद्राचार्यैः । “ सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् " इति सर्वस्य वस्तुनः स्याद्वादप्रविभक्तस्य विशेषः सच्वं तस्य व्यंजको बोधः स्वरूपादिचतुष्टयाद् दृष्टसाधर्म्यस्य स्वरूपादिचतुष्टयात् सन्निश्चितं न पररूपादिचतुष्टयेन तद्वत्सर्वे विवादापनं सत् को नेच्छेत् ? कस्यात्र विप्रतिपत्तिरिति व्याख्यानात् ।
स्वामी श्री समन्तभद्र आचार्य महाराजने स्वयं अपने देवागम स्तोत्रमें इसी प्रकार लक्षणवाले नयको उदाहरण देकर समझा दिया है कि (6 सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् असदेव विपर्यासान्न चेन व्यवतिष्ठते " । चेतन, अचेतन, द्रव्य पर्याय आदि सम्पूर्ण पदार्थोंको स्वरूप ( स्वद्रव्य ) आदि यानीं स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव इस स्वकीय चतुष्टयसे सत् स्वरूप ही कौन नहीं इच्छेगा । अर्थात् स्वचतुष्टयसे सम्पूर्ण पदार्थ अस्तिरूप हैं । यह एक नयका विषय है, तथा परकीय चतुष्टयसे सम्पूर्ण पदार्थ नास्ति स्वरूप ही हैं। यह दूसरा नय है । अन्यथा व्यवस्था नहीं है । स्वकीय अंशोंका उपादान और परकीय अंशोंका त्याग करना ही वस्तुके वस्तुत्वको रक्षित रखता है। इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार पृथक् पृथक् विशेष धर्मोसे गृहीत हुये सम्पूर्ण वस्तुका जो विशेष यानी सत्व है । उस अस्तित्वका स्वरूप आदि चतुष्टय व्यंजक ज्ञान नय है । दृष्ट पदार्थ के साथ साधर्म्यका स्वरूप आदि चतुष्टयसे वस्तुमें अस्तित्व निश्चित किया गया है। परकीय रूप, क्षेत्र, आदिके चतुष्टय करके वस्तुका अस्तित्व निर्णीत नहीं है । उसीके समान सभी विवाद में प्राप्त 1 हो रहे जीव, बन्ध, मोक्ष आदि पदार्थोंके अस्तित्वको कौन नहीं इष्ट करेगा ? अर्थात् - इस प्रकार ant विवक्षासे प्रमाण सिद्ध पदार्थोंके इस अस्तित्वमें भला किस विद्वानको विवाद पड़ा रहा सकता है । अर्थात् - किसीको भी नहीं । इस प्रकार उस कारिकाका व्याख्यान है ।