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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः जाना । यहां सम्वेदन नामक अर्थपर्यायको विशेष्य होनेके कारण मुख्यरूपसे जाना गया है । और प्रतिक्षण उत्पाद व्ययरूप अर्थपर्यायको विशेषण होनेके कारण नैगम नयद्वारा गौण रूपसे जाना गया है । अन्यथा उक्त प्रयोग कैसे भी नहीं बन सकता था । सुख और सम्बेदनका आत्मामें कथंचित् अभेद है । अथवा चेतना गुणकी ज्ञानस्वरूप अर्थपर्यायको प्रधानता से और सुख गुणकी अपर्याय हो रहे लौकिक सुखको गौणरूपसे नैगम नय जानता है । सर्वथा सुखसंवित्योर्नानात्वेभिमतिः पुनः । स्वाश्रयाचा पर्याय नैगमाभोऽप्रतीतितः ॥ ३१ ॥ जिनपर्यायों विषयीकुरुतेजसा । गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नैगमः ॥ ३२ ॥ . सचैतन्यं नरीत्येवं सत्वस्य गुणभावतः । प्रधानभावतश्वापि चैतन्यस्याभिसिद्धितः ॥ ३३ ॥ २३५ हां, सभी प्रकारोंसे फिर परस्पर में सुख और सम्बेदनके नानापन में अभिप्राय रखना अथवा अपने आश्रय हो रहे आत्मासे सुख और ज्ञानका भेद माननेका आग्रह रखना तो अर्थपर्याय नैगमका आभास है । क्योंकि एक द्रव्यके गुणोंका परस्पर में अथवा अपने आश्रयभूत द्रव्यके साथ सर्वथा भेद रहना नहीं प्रतीत हो रहा है । ------- तयोरत्यंतभेदोक्तिरन्योन्यं स्वाश्रयादपि । ज्ञेयो व्यंजनपर्यायनैगमाभो विरोधतः ॥ ३४ ॥ कोई नैगम नयका दूसरा प्रभेद तो एक धर्मी में गौण प्रधानपनेसे दो व्यंजन पर्यायों को शीघ्र विषय कर लेता है, जैसे कि " आत्मनि सत् चैतन्यं " आत्मामें सत्व है, और चैतन्य है । इस प्रकार यहां विशेषण हो रही सत्ताकी गौणरूपसे इप्ति है । और विशेष्य हो रहे चैतन्यकी भी प्रधानभाव से सर्वतः इप्ति सिद्ध हो रही है। अतः दोनों भी व्यंजन पर्यायोंको यह नैगम विषय कर रहा है। सूक्ष्मपया'योंको अर्थपर्याय कहते हैं । और व्यक्त ( प्रकट ) हो रही पर्यायें व्यंजन पर्याय हैं । इस उक्त नयका आभास यों है कि उन सत्ता और चैतन्यका परस्परमें अत्यन्त भेद कहना rest अपने अधिकरण हो रहे आत्मासे भी सत्ता और चैतन्यका अत्यन्त मेद बके जाना
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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