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________________ तत्त्वार्थकोकवार्तिके विषम होता हुआ अपने ही पक्षका घातक है । अत्यन्त मूर्ख पुरुष भी गुरुकृपासे या विशिष्ट क्षयोपशम हो जानेसे व्याकरण, ज्योतिष, न्याय, साहित्य, मंत्रशास्त्र आदि विषयोंमें एक ही पारदृश्वा बन जाता है । ज्ञानकी सीमा सम्पूर्ण त्रिलोक, त्रिकालवी पदार्थीको जान लेने तक है। केवलज्ञान तो अनन्त भी लोक अलोक या काल होते तो उनको मी जान सकता था । कार्यकारण भावका भंग कर अतिशय होते हुये हम जैनोंको इष्ट नहीं है । वृक्षसे मनुष्यकी उत्पत्ति या चक्षु इन्द्रिय द्वारा शब्दका सुन लेना इत्यादि प्रकारके अतिशयोंको हम जैन नहीं मानते हैं। चक्रवर्ती, इन्द्र, ऋद्धिधारी मुनि, श्रीअरहन्तदेव भी असम्भव कार्योंको नहीं कर सकते हैं । किन्तु अनन्तसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तीर्य, शायिक चारित्र ये सब आत्माके स्वाभाविक गुण है। प्रतिबन्धकोंके लग जानेपर अपना कार्य नहीं कर सकते थे, और प्रतिबन्धकोंके सर्वथा क्षय हो जानेपर इच्छा और प्रयत्नके विना ही सूर्यके समान विकासको प्राप्त हुये अपने स्वाभाविक कार्यमें संलग्न हो जाते हैं। ततो यदुपहसनकारि भट्टेन । " यैरुक्तं केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । सूक्ष्मातीतादिविषयं सूक्तं जीवस्य तैरदः" इति, तदपि परिहतमित्याह। तिस कारण मीमांसक कुमारिल भट्टने जो हम जैनोंका उपहास किया था कि जिन जैनोंने इन्द्रिय, मन, हेतु, सादृश्य, मदं आदिकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले जीवके सूक्ष्म, भूत, भविष्यत् आदि पदार्थीको विषय करनेवाला केवळज्ञान कहा है, इन जैनोंने वह तत्व बहुत बढ़िया कहा। अर्थात्-सूक्ष्म आदिक पदार्थोके जाननेका बोझ जीवोंपर धर दिया है । कहीं जलका बिन्दु मी समुद्र हो सकता है ! इस प्रकार भट्ट महाशयका वह उपहास वचन भी खण्डित कर दिया गया है। इसी बातको श्री विद्यानन्द आचार्य अग्रिमवार्तिक द्वारा कहते हैं । जीवके स्वभावका प्रकट हो जाना कोई बोश नहीं है, प्रत्युत वही आत्मलाभ है । एक जैलकी बूंदके स्कन्ध विखर जाय तो कई समुद्र बन सकते हैं, खसके दाने बरावर पुद्गल स्कन्ध मचल जाय तो लाखों कोसोंतक फैलकर उपद्रव मचा देता है । एक इंच लम्बे चौडे आकाशमें सैकडों महलोंके बनानेमें उपयोगी होय इतनी मिट्टी समासकती है। विज्ञान भी इस बातको स्वीकार करता है। जैन सिद्धान्त तो "सवाणुढाणदाहरिइं" इस सिद्धान्तको कहता चला आरहा है। आकाशके परमाणु बराबर एक प्रदेशमें अनन्त अणु और अनन्त स्कन्ध आ सकते हैं । पानीसे मरे हुये पात्रमें भी थोडे बूरेको स्थान मिल जाता है । उटनीके दूधसे भरे हुये पात्रमें मधु मिलादेनेपर भी फैलता नहीं है । रहस्य यह है कि सर्वज्ञके ज्ञानका उपहास करना अपना ही उपहास कराना है । अनुमान, व्याप्तिवान, आगम, इनसे सर्वका अविशद ज्ञान तो माना ही जारहा है । फिर क्षीणकर्मा सर्वबके सर्वका विशदज्ञान हो जाय इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ! कुछ भी नहीं।
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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