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________________ तवार्य चिन्तामणिः है। धर्मदव्यपना धर्मद्रव्यस्वरूप ही है । अधर्मस्व अधर्मद्रव्यस्वरूप ही है । आकाशस्म धर्म आकाश स्वरूप ही है । कालस्व सामान्यकालपरमाणुओं स्वरूप ही है। ये जाति और व्यक्तियोंके सर्वथा अभेद एकान्तको कहनेवाले सब अपरसंग्रहाभास है। क्योंकि जीवत्व पुद्गलव आदि सामान्योंकी अपने विशेष व्यक्तियोंसे कथंचित् मेद करके प्रतीति हो रही है । अन्यथा यानी कथंचित् भेद नहीं मान कर दूसरे अशक्य विवेचनस्व आदि प्रकारों से उनका सर्वथा अभेद मानोगे तो उन दोनोंमेंसे एकका लोप हो जानेपर बचे हुये शेषका भी लोप हो जायगा । ऐसी दशामें सबके लोप हो जानेका प्रसंग बाता है। अर्थात्-विशेषका सामान्यके साथ अभेद माननेपर सामान्यमें विशेष लीन हो जायगा । एवं विशेषोंका प्रलय हो जानेपर सामान्य कुछ भी नहीं रह सकता है। धडके मर जानेपर सिर जीवित नहीं रह सकता है । इसी प्रकार अपेदपक्ष अनुसार विशेष व्यक्तियों में सामान्यके लीन हो जानेपर विशेषोंका नाश अनिवार्य है। ईसके मध्यवर्ती झोपडे तीव्र अग्नि लगनेपर मिले हुये झोंपडोंका जल जाना अवश्यम्भावी है । सिरके मर जानेपर धड जीवित नहीं रह पाता है । यहां विशेष यह है कि जाति और व्यक्तियोंका सर्वथा भेद माननेवाळे वैशेषिक जन एक ही व्यक्तिमें रहनेवाले धर्मको जाति स्वीकार नहीं करते हैं । " व्यक्तरभेदस्तुस्यत्वं संकरोथानवस्थितिः । रूपहानिरसम्बन्धो जातिबाधकसंग्रहः ।। किंतु जैन सिद्धान्तमें धर्म, अधर्म, और आकाशको एक एक ही द्रव्य स्वीकार किया गया है। फिर भी त्रिकालसम्बन्धी परिणामोंकी अपेक्षा धर्मद्रव्य अनेक हैं। उनमें एक "धर्मव" धर्म जाति ठहर सकता है । स्याद्वाद सिद्धान्त अनुसार सामान्यको सर्वथा एक मानना इष्ट नहीं है । व्यक्तियोंसे कथंचित् अमिन होता हुआ सामान्य एक है अनेक भी है। इसी प्रकार अधर्म और आकाशमें भी सदृशपरिणामरूप जातिका सद्भाव विना विरोध के संगत हो जाता है । कथंचित भेद, अमेद, सर्वत्र भर रहे हैं। तया क्रममाविपर्यायत्वं क्रमभाविपर्यायविशेषात्मकमेव, सहभाविगुणत्वं तद्विशेषात्मकमेवेति वापरसंग्रहाभासौ प्रतीतिप्रतिघातादेव । एवमपरापरद्रव्यपर्यायभेदसामान्यानि स्वव्यरक्यात्मकान्येवेत्यभिप्रायाः सर्वेप्यपरसंग्रहाभासाः प्रमाणबाधितत्वादेव बोद्धव्या: प्रतीत्यविरुदस्यैवापरसंग्रहमपंचस्यावस्थितत्वात् । द्रव्य व्यक्कियां और द्रव्यजातियोंका अभेद कह कर अब पर्यायोंका अपनी जातिके साथ अभेद माननेको नयामास कहते हैं । जो कोई प्रतिवादी क्रममावी पर्यायत्वसामान्यको क्रम क्रमसे होनेवाले विशेष पर्यायों स्वरूप ही कह रहा है, अथवा सहभाषी पर्याय गुणत्वको उस गुणत्व सामान्यके विशेष हो रहे अनेक गुण भात्मक ही इष्ट किये बैठा है, ये दोनों भी प्रतीतियों द्वारा प्रतिघात हो जानेसे ही अपरसंमहाभास समझने चाहिये । इसी प्रकार और भी आगे आगेके उत्तरोत्तर द्रव्य या पर्यायों के भेद प्रभेदरूप सामान्य द्रव्यत्व, ( पृथिवीत्व, घटत्व आदिक ) भी अपनी अपनी
SR No.090498
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 4
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size17 MB
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