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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
तीन्द्रियान्सर्वानन्विनानन्नपि धर्म साक्षान स वेत्तीति वदन्नपि तत्साक्षात्करणे धर्मस्य साक्षात्करणसिद्धरतीन्द्रियत्वेन जात्यन्तरत्वाभावात् । यस्य यज्जातीयाः पदार्थाः प्रत्यक्षातस्यासत्यावरणे तेऽपि प्रत्यक्षा यथा घटसमानजातीयभूतलपत्यावे घटा। प्रत्यक्षाश्च कस्यचिद्विवादापत्रस्या धर्मसजातीया: परमाण्वादयो देशकालस्वभावविप्रकृष्टा इति न्यायस्य सुव्यवस्थितत्वात् ।
जिस ही प्रकार यों कह रहा मीमांसक केवल न्यायमार्गका उल्लंघन कर देता है कि उपाय सहित केवळ हेय और उपादेयको ही वह सर्वज्ञ जानता है । किन्तु फिर सम्पूर्ण कीडे, कूडे, और उनकी गिनती नाप, तोल आदिकोंको वह सर्वज्ञ नहीं जानता है । आचार्य कहते हैं कि यह मीमांसकोंका सर्वथा ( सरासर ) अन्याय है । क्योंकि उन उपादेयसहित हेय उपादेय तत्त्वोंके भले प्रकार जान लेनेपर सम्पूर्ण पदार्थोका अच्छा जान लेना अपने आप न्यायसे प्राप्त हो जाता है । तिसी प्रकार यों कह रहा मीमांसक भी न्यायमार्गको उल्लया है कि धर्मसे अतिरिक्त अन्य सम्पूर्ण अतींद्रिय पदार्थोको विशेषरूपसे जानता हुआ भी वह सर्वज्ञ धर्मको साक्षात् रूपसे नहीं जान पाता है । यह मीमांसकोंका अन्याय क्यों हैं ? इसका प्रकार उतर यही है कि उन सम्पूर्ण अतीन्द्रिय पदायोंके प्रत्यक्ष कर लेनेपर धर्मका प्रत्यक्ष कर लेना तो स्वतः सिद्ध हो जाता है। बहिरंग इन्द्रियों के विषय नहीं हो सकनेकी अपेक्षासे धर्म और अन्य अतीन्द्रिय पदार्थोंमें कोई भिन्न जातीयपना नहीं है । पुण्य, पाप, परमाणु, आकाश आदिक पदार्थ समान जातिके हैं । जिस ज्ञानी जीवको जिस जाति. वाळे पदार्थों का प्रत्यक्ष होगया है, उस ज्ञानीको प्रतिबंध आवरणोंके दूर हो जानेपर उस जातिवाळे अन्य पदार्थोका भी प्रत्यक्ष हो जाता है। जैसे कि पौद्गलिक घटके समान जातिवाले होरहे भूतलके चाइन्द्रिय द्वारा प्रयक्ष हो आने पर वहां विद्यमान हो रहे घटका भी चक्षुइन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष हो जाता है। इसी प्रकार विवादमें पडे हुये किसी सर्वज्ञके ज्ञान द्वारा धर्मके सजातीय परमाणु सुमेरु, रामचंद्र आदिक स्वभावविप्रकृष्ट, देशविप्रकृष्ट, कालविप्रकृष्ट पदार्थ प्रत्यक्ष हो जाते हैं। इन्द्रिय जन्य-ज्ञानग्राह्य अन्य पदार्थोका प्रत्यक्ष तो अभीष्ट ही है। इस प्रकार प्रतिज्ञा, हेतु, आदि पांच अवयववाले अनुमान स्वरूप न्यायकी भळे प्रकार व्यवस्था हो चुकी है।
ततो नेदं सूक्तं मीमांसकस्य । “धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते । सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते" इति । न ववधीरणानादरः । तत्सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यत इति । तत्र नो नावितरामादरः।
- तिस कारण मीमांसकोंका यह कहना समीचीन नहीं है कि सर्वत्रका निषेध करते समय केवल धर्मके ज्ञातापनका निषेध करना हो तो यहां उपयोगी हो रहा है। अन्य सभी पदार्थीको भले ही वह सर्वज्ञ जाने ऐसे सर्वजका किस विद्वान्करके निवारण किया जा रहा है ! अर्थात्मीमांसकोंका कहना है कि अतीन्द्रिय धर्मका ज्ञान तो वेदवाक्योंद्वारा ही होता है । धर्मसे अतिरिक
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