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तत्वार्यशोकवार्तिके
आकाशके वैधयेसे शब्दका अनित्यपना भी नहीं कहना चाहिये । यह न्यायवार्तिक ग्रन्थका अभिप्राय है। न्यायसूत्रवृत्तिको रचनेवाले श्री विश्वनाथ पंचानन भट्टाचार्यका भी ऐसा मिलता, जुलता, अभिप्राय गंभीर अर्थवाले सूत्र अनुासार साधर्म्य और वैधर्म्यको दोनों वादी प्रतिवादीयोंकी ओर लगाया जा सकता है। ___ सेयं जातिः विशेषहेत्वभावं दर्शयति विशेषहेत्वभावाचानकांतिकचोदनाभासो गोत्वागोसिद्धिवदुत्पत्तिधर्मकत्वादनित्यत्वसिद्धिः। साधर्म्य हि यदन्वयव्यतिरेकि गोत्वं तस्मादेव गौः सिध्यति न सत्त्वादेस्तस्य गोरित्यत्रावादावपि भावादव्यतिरेकित्वात् । एवमगोवैधर्म्ययपि गो साधनं नैकशफत्वादित्यस्याव्यतिरेकित्वादेव पुरुषादावपि भावात् । गोत्वं पुनगवि दृश्यमानमन्वयव्यतिरेक गोः साधनमुपपद्यते तद्वदुत्पत्तिधर्मकत्वं घटादावनित्यवे सति भावादाकाशादौ चाऽनित्यत्वाभावे अभावादन्वयव्यतिरेकि शद्धे समुपलभ्यमानमनित्यत्वस्य साधनं, न पुनरनित्यघटसाधर्म्यमात्रसत्त्वादिनाप्याकाशवधर्म्यमात्रममूर्तत्वादि तस्यान्वयव्यतिरेकित्वाभावात् । ततस्तेन प्रत्यवस्थानमयुक्तं दृषणाभासत्वादिति ।
नैयायिक अपने सिद्धान्त अनुसार यों कहते हैं तिस कारण वह असत् उत्तर स्वरूप हो रही जाति ( कर्ता ) परीक्षकोंके सन्मुख विशेष हेतुके अभावको दिखला देती है। अर्थात्-इस प्रकार असमीचीन उत्तरको कहनेवाले प्रतिवादीके यहां अपने निजपक्षका साधक कोई विशेष हेतु नहीं है। और विशेष हेतुके नहीं होनेसे यह प्रतिवादीका कथन प्रेरा गया व्यभिचारकी देशनाका आभास है । अथवा न्यायवार्तिक ग्रन्थके अनुसार सत्प्रतिपक्षकी देशनाका आभास है। जब कि क्रियाहेतुगुणाश्रयत्व हेतुले बारमा क्रिया सिद्ध हो जाती है, तो विभुत्व हेतु निष्क्रियत्वको साध नहीं सकता है। व्यभिचार या संदिग्धव्यभिचार दोष खडा हो जायगा । अथवा उत्पत्तिधर्मकत्व हेतुसे शब्दका अनि. त्यपना सिद्ध हो चुका तो अमूर्तत्व हेतुसे शब्दमें नित्यपना साधा जाना व्यभिचारदोषग्रस्त है। उक्त दोनों अनुमानके हेतुओंमें सत्प्रतिपक्षदोष नहीं है। फिर भी प्रतिवादीद्वारा सत्प्रतिपक्ष दोष कोरी ऐंठसे ढकेला जा रहा है। अतः यह सत्प्रतिपक्ष दूषणका आभास है। बात यह है कि " गोत्वाद्गो सिद्धिवत् तत्सिद्धिः " इस गौतमसूत्र अनुसार गोत्वहेतुसे गौकी सिद्धि के समान उत्पत्तिधर्मसहितपन हेतुसे अनित्यपन साध्यकी सिद्धि हो जाती है । कारण कि गोत्व जिसके साथ अन्वय और व्यतिरेकको धारण कर रहा है। उस ही से गायकी सिद्धि होती है। किन्तु अन्वय व्यतिरेकोंको नहीं धारनेवाले सत्त्व, प्रमेयत्व, कृतकत्व आदि व्यभिचारी हेतुओंसे गौकी सिद्धि नहीं हो पाती है । क्योंकि उन सत्त्व आदि हेतुओंका जिस प्रकार यहां गौ, बैडोंमें सद्भाव है, वैसे ही घोडा, हाथी, मनुष्य, घट, पट आदि विपक्षोंमें भी सद्भाव पाया जाता है । अतः सत्त्व आदि हेतुओंमें व्यतिरेकिपना नहीं बनता है । इसी प्रकार गोभिन्न पदार्थीका विधर्मापन भी गौका